SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 425
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा (अनेक क्रियाओं को भी एक मानने के कारण ही) "तिङन्त (क्रिया पद) 'एक शेष' ("सरूपाणाम् एकशेष एकविभक्तौ' पा० १.२.६४) सूत्र की रचना में हेतु नहीं है क्योंकि क्रिया एक है" यह भाष्य (में पतंजलि का कथन) सुसङ्त होता है। ऊपर “गत्यनाविष्टत्वे सति तज्जन्य-विभागाश्रयत्वम् अपादानत्वम्' इस परिभाषा में 'अव्याप्ति' दोष दिखाया गया था उसके निराकरण के लिये किसी विद्वान् ने यह कहा कि 'परस्परस्मान् मेषाव् अपसरतः' इस प्रयोग में 'अपसरतः' इस क्रिया पद से दोनों 'भेड़ों' में विद्यमान दो क्रियाओं का कथन हुआ है। इसलिये पहले 'भेड' में विद्यमान जो गति है उसका प्राश्रय दुसरा 'भेड' नहीं है तथा दूसरे भेड़ में जो गति है उसका प्राश्रय पहला 'भेड़' नहीं है। इस प्रकार पहले की अपेक्षा दूसरा तथा दूसरे की अपेक्षा पहला 'भेड़' 'अपादान' कारक बन जाएगा। इसी प्रकार 'पर्वतात् पततोऽश्वात् पतत्यश्ववाहः' इस प्रयोग में पतन क्रियाएँ दो हैं । अत: जिस 'पतन' किया का आश्रय 'अश्व' है उससे भिन्न, "घुड़सवार' सम्बन्धी, 'पतन' क्रिया का आश्रय न होने तथा इस दूसरे (अश्वाश्रित) पतन क्रिया से उत्पन्न विभाग का प्राश्रय होने के कारण 'अश्व' की 'अपादानता' सिद्ध हो जायेगी । इस प्रकार इस परिभाषा में कोई भी 'अतिव्याप्ति' दोष नहीं आएगा। परन्तु नागेश इस विचार का खण्डन करते हुए यह कहते हैं कि 'अपसरण' क्रिया अथवा 'पतन' क्रिया भले ही दोहों तथा दोनों को भिन्न मानने से 'मेष' तथा 'अश्व' की उपर्युक्त प्रयोगों में 'अपादानता' सिद्ध हो जाय । लेकिन एक ही क्रिया के दो या अनेक रूप से कथित होने पर भी उसे एक ही माना जाएगा दो या अनेक नहीं। और जव यहाँ 'अपसरण' तथा 'पतन' क्रिया को एक माना जाएगा तो पूर्वोक्त 'अव्याप्ति' दोष बना ही रह जाता है। इस प्रकार की क्रिया को यदि एक न माना गया तो भाष्यकार पतंजलि का यह कथन--"न तिङ्न्तानि एकशेषारम्भम्प्रयोजयन्ति । एका हि किया," अर्थात् क्रिया की अनेकता, “सरूपाणम् एकशेष एकविभक्तौ” (पा० १.२.६४) सूत्र से विहित 'एकशेष' में हेतु नहीं बना करती। अभिप्राय यह है कि एक क्रिया के अनेकधा कथित होने पर भी उनमें 'एकशेष' करने की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि क्रिया में अनेकता नहीं हो सकती,–'एका हि क्रिया'-क्रिया एक ही होती है । अतः 'पतन' क्रिया अथवा 'अपसरण' क्रिया को अनेक नहीं माना जा सकता। और इन क्रियाओं को एक मानने पर ऊपर प्रदर्शित 'अव्याप्ति' दोष दूर नहीं होता। ऊपर "यद् अपि अपसरतः अविरुद्धम् इति" इन शब्दों में जिस विचार को नागेश ने प्रस्तुत किया है वह किसका है यह स्पष्ट ज्ञात नहीं है । टीकाकारों ने इसे कौण्ड भट्ट का विचार माना है। वैयाकरणभूषणसार (पृ० १६८) में यह प्रसङ्ग निम्न पंक्तियों में निबद्ध है---"यथा निश्चल-मेषाद् अपसरद्-द्वितीय-मेष-स्थले निश्चल-मेषस्य अपसरन्-मेषक्रियाम् प्रादाय ध्र वत्वं तथा अत्रापि विभागक्येऽपि क्रिया-भेदाद एक-क्रियाम् आदाय परस्य ध्र वत्वम् इति" । इस पंक्ति का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार 'मेषाद् मेष अपसरति' For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy