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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३५२ वैयाकरण- सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूपा दी गयी कि यदि धातु 'अकर्मक' हो तो क्रिया के 'उद्देश्य' की 'सम्प्रदान' संज्ञा हो । जैसे - 'पत्ये शेते' इत्यादि प्रयोग । यहां इस प्रयोग में पत्नी के शयन क्रिया का उद्देश्य पति है । कात्यायन ने 'कर्मरणा यमभिप्रति० सूत्र की व्याख्या में इन अकर्मक धातुओं की दृष्टि से ही “क्रियाग्रहणं च कर्त्तव्यम्" इस वार्तिक को प्रस्तुत किया था। यह वार्तिक ही 'सम्प्रदान' कारक की इस दूसरी परिभाषा का मूल है । परन्तु पतंजलि ने यह कह कर इस वार्तिक का खण्डन कर दिया कि क्रिया भी 'कर्म' है। किसी भी क्रिया के विषय में पहले 'सन्दर्शन' ('फल' विषयक विचार), उसके बाद 'प्रार्थना' ('फल' के उपाय की अभिलाषा) और फिर 'व्यवसाय' ('फल' के साधन के रूप में क्रिया-विशेष का निश्चय) प्रादि करने के बाद ही उस क्रिया का आरम्भ किया जाता है । इसलिये 'अकर्मक' धातुत्रों के प्रयोग में भी प्रतीत होने वाली इन क्रियात्रों की दृष्टि से 'कर्म' की उपलब्धि हो जायगी । द्र० - " कथं नाम क्रिया क्रियया ईप्सिततमा स्यात् ? क्रियापि क्रियया ईप्सिततमा भवति । कया क्रियया ? सन्दर्शनक्रियया वा प्रार्थयति क्रियया व श्रध्यवस्यतिक्रियया वा । इह य एष मनुष्यः प्रेक्षापूर्वकारी भवति स बुद्धया तावत् कंचिद् ग्रर्थं सम्पश्यति, सन्दृष्टे प्रार्थना, प्रार्थनायाम् अध्यवसायः, अध्यवसाये प्रारम्भः, आरम्भे निर्वृत्तिः, निर्वृत्तौ फलावाप्तिः ( महा० १.४.३२ ) । तुलना करो - " Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १. ह० – सिद्ध । सन्दर्शनं प्रार्थनायां व्यवसाये त्वनन्तरा । व्यवसायस्तथाऽऽरम्भे साधनत्वाय कल्पते । ( वाप० ३.७,१६ ) 'प्रार्थना' क्रिया में 'सन्दर्शन', 'व्यवसाय' में 'प्रार्थना' तथा 'आरम्भ' में 'व्यवसाय' साधन बनता है । पतंजलि के 'अध्यवसाय' लिये ही भर्तृहरि ने 'व्यवसाय' का प्रयोग किया है । [ "कर्मणा यमभिप्रैति० " सूत्र की श्रावश्यकता पर विचार ] ननु दानादीनां तदर्थत्वात् 'तादर्थ्ये चतुर्थ्या' एव सिद्धौ किं "कर्मणा यम् ० " ( पा० १.४.३२ ) इति 'सम्प्रदान'संज्ञया ? "चतुर्थी सम्प्रदाने" ( पा० २.३.१३ ) इति सूत्रं तु " रुच्यर्थानाम् ० " ( पा० १.४.३३ ) इति विषये चतुर्थ्यर्थम् इति चेत् ? For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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