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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५० वैयाकरण-सिद्धांत-परम-लघु-मंजूषा (यह बात असुरों के राजा से कहो तथा वह जो उचित हो करे) यह दुर्गासप्तशती का, श्लोक सुसङ्गत होता है। इसलिये 'रजकाय वस्त्रं ददाति' इत्यादि (चतुर्थी विभक्ति वाले प्रयोग) होते ही हैं । यहाँ 'पाधीन करने' अर्थ में 'दा' धातु (का प्रयोग) है। 'चपेटां ददाति' यहाँ ('दा' धातु का प्रयोग) रखने (लगाने या जड़ने) अर्थ में है। नागेश ने वृत्तिकारों के उपर्युक्त मत का खण्डन इस आधार पर किया है कि भाष्यकार पतंजलि के प्रयोग से इस मत का स्पष्टत: विरोध है क्योंकि "वृद्धिर् प्रादैच' (पा० १.१.१) सूत्र के भाष्य में "कथं पुनर्जायते भेदका उदात्तादय इति ? एवं हि दृश्यते लोके य उदात्ते कर्तव्ये अनुदात्तं करोति खण्डिकोपाध्यायस् तस्मै चपेटां ददाति' इन वाक्यों का प्रयोग किया है। यहां 'खण्डिकोपाध्यायस्तस्मै चपेटां ददाति' यह प्रयोग वृत्तिकारों के मत को मानते हुए कभी भी उपपन्न नहीं हो पाता । यहां 'दा' धातु का, अपने मुख्य अर्थ में प्रयोग न होकर, थप्पड़ के संयोगविशेष के अनुकूल 'व्यापार' अर्थ में हुआ है । इसलिये, कथमपि 'सम्यक् प्रदानता' अर्थ के न होने के कारण, यहां वृत्तिकारों के मत के अनुसार 'सम्प्रदान' संज्ञा नहीं होनी चाहिये । परन्तु भाष्यकार ने यहाँ चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग किया है। अन्वर्थसंज्ञाया अस्वीकाराच्च-पतंजलि ने 'खण्डिकोपाध्यायस् तस्मै चपेटां ददाति' यह प्रयोग तो किया ही जिससे स्पष्ट है कि वे 'सम्प्रदान' को अन्वर्थक संज्ञा नहीं मानते, साथ ही “कर्मणा यम् अभिप्रैति सम्प्रदानम्" (पा० १.४.३२) इस सूत्र के भाष्य में कहीं भी पतंजलि ने 'सम्प्रदान' को अन्वर्थक संज्ञा नहीं माना। इसके अतिरिक्त "क्रियाग्रहणं च" ("कर्मणा यम् अभिप्रेति०" इस सूत्र में 'कर्म' पद के साथ किया' पद का भी ग्रहण करना चाहिये, जिससे 'श्राद्धाय निगहते', 'पत्ये शेते' जैसे प्रयोग भी. जिनमें धात के 'अकर्मक' होने के कारण कोई भी 'कर्म' नहीं है, सिद्ध हो जायें) इस वार्तिक का खण्डन करते हुए पतंजलि ने यह कहा कि पाणिनि के उपयुक्त सूत्र में विद्यमान 'कर्म' पद से ही क्रिया अर्थ भी लिया जाना चाहिये क्योंकि क्रिया भी कृत्रिम कर्म है । द्र०-"क्रियाऽपि कृत्रिमं कर्म" (महा० १.४.३२)। भाष्यकार का यह कथन भी स्पष्ट सूचित कर रहा है कि क्रियामात्र के 'कर्म' से सम्बन्ध स्थापित करने के लिये उस क्रिया का उद्देश्यभूत जो 'कारक' उसकी 'सम्प्रदान' संज्ञा भाष्यकार को अभीष्ट है । साथ ही वे सूत्र के 'कर्म' पद से 'क्रिया' अर्थ भी लेना चाहते हैं जिससे 'श्राद्धाय निगहते' तथा 'पत्ये शेते' जैसे सभी प्रयोग, बिना 'क्रिया' पद का पृथक् ग्रहण किये ही, सिद्ध हो जाएँ इसलिये पतंजलि को प्रमाण मानते हुए 'सम्प्रदान' संज्ञा को अन्वर्थक नहीं माना जा सकता । इस कारण 'दा' धातु तथा अन्य धातुओं के प्रयोगों में, चाहे 'सम्यक् प्रदानता' का अर्थ हो या न हो, अन्य क्रिया के 'कर्म' से सम्बन्ध स्थापित करने के लिये जो 'उद्देश्य' हुआ करता है उसे 'सम्प्रदान' कारक मानना चाहिये। १. 'खण्डिकोपाध्यायः' शब्द का कुछ विद्वान् ‘बालकों के उपाध्याय' अर्थ करते हैं। दूसरे विद्वान् ‘कुद्ध उपाध्याय' को तथा कुछ अन्य विद्वान् 'अथर्ववेद के अध्यापक' को खण्डिकोपाध्याय बताते हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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