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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३६ वैयाकरण - सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा में 'गाम्' पद की 'कर्म' संज्ञा की सिद्धि हो जायगी । इस विषय का विस्तार श्रन्यत्र (लघु मञ्जूषा आदि ग्रन्थों में द्रष्टव्य) है । 'दुह,' प्रादीनां इष्टसिद्धे :- 'दुह' आदि कुछ धातुएं ऐसी हैं जिनमें एक साथ दो दो 'व्यापारों की प्रतीति होती है। 'गां दोग्धि पय:' इस वाक्य से जहाँ यह प्रतीति होती है कि गौ अपने से दूध को अलग करती है वहीं यह प्रतीति भी होती है कि ग्वाला गौ से दूध को अलग करवाता है । इसलिये 'दुह' धातु का अर्थ है “दूध में होने वाले 'विभाग' रूप व्यापार के अनुकूल गोप में होने वाला 'दोहन' रूप व्यापार" । इस तरह दोनों ही 'व्यापार' 'दुह' धातु के ही अर्थ हैं - यह एक पक्ष है । - इस पक्ष में, दोनों ही 'व्यापार' धातु के ही अर्थ हैं इसलिये, “कर्तुर् ईप्सिततमं कर्म” इस लक्षण की व्याख्यानभूत परिभाषा - 'प्रकृत धात्वर्थ प्रधानीभूत-व्यापार-प्रयोज्यप्रकृत धात्वर्थफलाश्रयत्वेन उद्देश्यत्वं कर्मत्वम्' -- के अनुसार प्रकृत- 'दुह 'धातु के दोनों 'व्यापारों' से उत्पाद्य 'विभाग' रूप फल के दोनों प्राश्रयों - 'गौ' तथा 'पयस्' – की 'कर्म' संज्ञा प्राप्त हो जायगी । अतः पाणिनि का " प्रकथितं च " सूत्र इस पक्ष में अनावश्यक हो जाता है । एक व्यापार ""बाधनार्थम् - परन्तु इन धातुओं के विषय में एक मत यह भी है कि इनसे केवल एक ही प्रमुख 'व्यापार' की प्रतीति होती है । जैसे- 'गां दोग्धि पयः' प्रयोग में 'दुह' धातु केवल 'गोप' के ही व्यापार को कह रहा है जिसका उत्पाद्य 'फल' है दूध में होने वाला 'विभाग' । इस पक्ष में 'गोप' के व्यापार से उत्पाद्य 'विभाग' रूप फल के आश्रय दूध की तो कर्म संज्ञा हो जायगी। पर, 'गौ' में होने वाला 'व्यापार' धातु द्वारा नहीं कहा जा रहा है इसलिये, उस 'व्यापार' से उत्पाद्य विभाग' - रूप 'फल' के आश्रय 'गौ' की 'कर्म' संज्ञा नहीं हो सकेगी । इस स्थिति में यदि 'गौ' को 'अपादान' यदि 'कारकों' के द्वारा कह दिया जाय तब तो ठीक है । पर यदि वक्ता की इच्छा 'गौ' को उस रूप में कहने की नहीं है अपितु 'कर्म' कारक के रूप में ही प्रस्तुत करने की अभिलाषा है तब, " प्रकथितं च " सूत्र के अभाव में, 'कर्म' संज्ञा की प्राप्ति न हो कर “षष्ठी शेषे" से षष्ठी विभक्ति की प्राप्ति होगी । अतः इस अवांछित षष्ठी विभक्ति की प्राप्ति को रोकने के लिये "अकथितं च " सूत्र आवश्यक है । तत्पक्षे कर्मत्वसिद्धिः -- यह " अकथितं च" सूत्र 'कर्म' संज्ञा का तीसरा लक्षण है । ऊपर पहले के दो सूत्रों के विषय में विचार किया गया। यहां इस तीसरे लक्षण के के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए नागेश भट्ट ने यह कहा है कि 'कथित' कारक वह है जिसे 'अपादान' आदि अन्य कारकों द्वारा वक्ता की कहने की इच्छा न हो तथा जो प्रमुख 'कर्म' कारक से सम्बद्ध हो । जैसे यहां दूध प्रमुख 'कर्म' संज्ञक शब्द है । उसमें सम्बद्ध कारक 'गौ' को, जब 'अपादान' आदि ग्रन्य कारकों के रूप में न कह कर, वक्ता 'कर्म' कारक के रूप में ही कहना चाहता है, उस स्थिति में 'गौ' 'कथित' कारक होगी । 'अपादान' प्रादि ग्रन्य 'कारकों द्वारा कथित न होने से ही 'शेष' होने के कारण 'गौ' शब्द “षष्ठी शेषे" सूत्र का विषय बन जाता है । परन्तु "अकथितं च" इस For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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