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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३३४ वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा ['कर्म' कारक के कुछ अन्य प्रयोगों पर विचार ननु 'अन्नं भक्षयन् विषं भुक्ते' 'ग्रामं गच्छंस् तृणंस्पृशति' इत्यादौ विषतृणयोर् उद्देश्यत्वाभावात् कथं कर्मत्वम् इति चेत् शृणु । "तथा युक्तम् ०" (पा० १.४.५०) इति लक्षणान्तरात। "प्रकृत-धात्वर्थ-प्रधानीभूत-व्यापारप्रयोजन-प्रकत-धात्वर्थ-फलाश्रयत्वम अनीप्सित-कर्मत्वम्" इति तदर्थात् । 'प्रयागात काशीं गच्छति' इत्यत्र प्रयागस्य कर्मत्व-वारणाय 'प्रकृत-धात्वर्थ-फल' इति । द्वेष्योदासीन-कर्म-सङग्रहार्थम् इदं लक्षणम् । 'अन्नं भक्षयन् विषं भुङ्क्ते' (अन्न खाते हुए विष खाता है) तथा 'ग्राम गच्छंस् तणं स्पृशति' (गाँव जाता हुआ तृण छूता है) इत्यादि (प्रयोगों) में 'विष' तथा 'तण' के उददश्य न होने से (इन दोनों की) 'कर्म' संज्ञा कैसे होगी? इस का उत्तर यह है कि "तथाऽयुक्तं चानीप्सितम्" इस दूसरे सूत्र से (इन की 'कर्मसंज्ञा हो जायगी) क्योंकि उस (सूत्र) का अर्थ है--"प्रस्तुत धातु के अर्थ-प्रधानीभूत 'व्यापार'-से उत्पाद्य. प्रस्तुत धातु के अर्थ--फलका आश्रय होना अनीप्सित-कर्मता है"। 'प्रयागात् काशी गच्छति' (प्रयाग से काशी जाता है) यहाँ 'प्रयाग' की 'कर्मसंज्ञा ('अनीप्सितकर्मता') न हो जाय इसलिये (यहां 'अनीप्सित-कर्मता' की परिभाषा में') 'प्रकृत-धात्वर्थ-फल' पद रखा गया है 'दुष्य' तथा-'उदासीन' कर्म (--- संज्ञक शब्दों) के सङ्ग्रह के लिये यह लक्षण बनाया गया। ऊपर, "कर्तुर ईप्सिततमं कर्म" सूत्र के आधार पर 'कर्म' कारक की जो परिभाषा की गयी उससे 'अन्नं भक्षयन् विषं भुङ्क्ते' तथा 'ग्रामं गच्छंस् तृणं स्पृशति' जैसे प्रयोगों में द्वष्य (घातक) 'विष' तथा उदासीन (जो न तो अभीष्ट ही है और न अनभीष्ट है) 'तण' की 'कर्म' संज्ञा नहीं प्राप्त होती, क्योंकि वे 'फल' के आश्रय के रूप में अन्न खाने वाले तथा गांव जाने वाले व्यक्ति को अभीष्ट नहीं है। जो भोजन कर रहा है वह कभी भी यह नहीं चाहेगा कि वह विष भी खा ले। वह तो विष से द्वष ही करेगा, क्योंकि वह जानता है कि विष-भक्षरण से उसकी मत्यु हो जायगी। द्वेष का विषय होने के कारण ही विष को यहां 'द्वेष्य' कहा गया है। इसी प्रकार गांव जाते हुए व्यक्ति के लिये रास्ते में मिलने वाले तृण इत्यादि 'फल' के आश्रय के रूप में न तो अभीष्ट ही हैं और न विष के समान द्वष्य ही हैं। इसीलिये उपेक्षित होने के कारण ही उन्हें 'उदासीन' कहा गया। इस प्रकार के जितने भी 'द्वेष्य' तथा 'उदासीन' कर्म हैं, उन सबकी 'कर्मता' की सिद्धि के लिये पाणिनि ने कर्म संज्ञा का विधान करने वाले एक अन्य सूत्र "तथाऽयुक्तं चानीप्सितम्" की रचना की। इस सूत्र के अर्थ को ही ऊपर नागेश ने स्पष्ट किया है। For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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