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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कारक - निरूपण ३२५ होता है । 'विभक्त्यर्थ' का तात्पर्य है 'सुप्' विभक्ति अथवा 'तिङ्' विभक्ति का अर्थ । 'सुप्' विभक्ति के अर्थ में 'प्रथमा विभक्ति' का अर्थ - ( 'प्रातिपदिकार्थ' ) तथा 'अधिकरण' का अर्थ ('आधार') प्रभीष्ट है तथा 'तिङ' विभक्ति के अर्थ में, कर्तृवाच्य के वाक्यों में, 'कर्त्ता' और कर्मवाच्य के वाक्यों में 'कर्म' प्रभीष्ट हैं । 'चैत्रः गच्छति' इस वाक्य के 'विभक्त्यर्थ' अर्थात् 'प्रथमाविभक्त' का अर्थ ( 'प्रातिपदिकार्थ' ) एवं 'तिङ' विभक्ति का अर्थ ( ' कर्तृत्व' ) दोनों -भिन्न होकर गमन क्रिया में अन्वित होते हैं। इस प्रकार यहां गमन क्रिया की प्रधानता है । परन्तु इस 'विभक्त्यर्थ' के साथ 'चैत्र' शब्द का जब अन्वय होगा तब 'विभक्त्यर्थ' ('प्रातिपदिकार्थ' से अभिन्न 'कर्तृत्व' ) की प्रधानता होगी। इसी प्रकार 'घट: क्रियते' इस कर्मवाच्य के प्रयोग में पहले 'विभक्त्यर्थ', ('प्रातिपदिकार्थ' ) से अभिन्न 'कर्मत्व' का करनारूप क्रिया में श्रन्विय होगा। फिर इस 'विभक्त्यर्थ' के साथ 'घट' का अन्य होगा | षष्ठ्यर्थस्य श्रध्याहारेणैव बोध : - इस प्रकार प्रथमार्थ तथा सप्तम्यर्थ का, क्रिया में अन्वित होने वाले, 'कर्त्ता' तथा 'कर्म' में ग्रन्वय होने के कारण इनकी 'कारकता ' सिद्ध हो जाती है । परन्तु षष्ठी विभक्ति के अर्थ 'सम्बन्ध' में यह लक्षण घटित नहीं होता और यही अभीष्ट भी है । इस प्रकार पूर्वोक्त प्रतिव्याप्ति दोष इस परिभाषा में नहीं उपस्थित होता क्योंकि 'चैत्रस्य तण्डुलं पचति' इत्यादि प्रयोगों में षष्ठ्यन्त 'चैत्र' शब्द का अन्वय 'तण्डुल' यादि 'नाम' शब्दों के अर्थ में होता है । किसी प्रकार - परम्परया -- भी उसका ग्रन्वय क्रिया में नहीं होता। जब केवल 'चैत्रस्य पचति' इतना ही कहा जाता है तब भी 'तण्डुल' जैसे किसी 'नाम' शब्द का अध्याहार करके ही इस वाक्य का अर्थ किया जाता है । इसलिये यहां उस अध्याहृत 'नाम' शब्द के अर्थ के साथ ही षष्ठ्यन्त शब्द का अन्वय है । षष्ठ्यर्थसम्बन्धस्य निराकांक्षत्वात् -- ' षष्ठ्यन्त शब्द तथा क्रियावाचक पदों के अर्थों का परस्पर अन्वय हो ही नहीं सकता' इस कथन की पुष्टि के लिये यहां एक प्रबल हेतु यह दिया गया है कि षष्ठी विभक्ति का अर्थ ( सम्बन्ध ) 'नाम' शब्दों के अर्थ के प्रति ही साकांक्ष रहता है। इस कारण उससे अन्वित होकर वह निरपेक्ष या निराकांक्ष हो जाता है । इस प्रकार, 'आकांक्षा' रहित हो जाने के कारण, 'सम्बन्ध' तथा 'क्रिया' का परस्पर अन्वय हो ही नहीं सकता । इस रूप में किया में अन्वित न होने के कारण इसकी 'कारकता' समाप्त हो जाती है । पष्ठी विभक्ति के समान ही 'उपपद' विभक्तियों की भी स्थिति है क्योंकि उनका अर्थ भी 'सम्बन्ध' ही है जिसका अन्वय 'क्रिया' में नहीं होता । ' उपपद' विभक्त शब्द का विग्रह किया जाता है— उपपदेन ( समीप स्थितेन पदेन ) योगे विभक्तिः उपपदविभक्तिः' । अर्थात् किसी पद के समीप में होने के कारण उपस्थित होने वाली विभक्ति । इसके उदाहरण हैं- " नमः स्वस्ति स्वाहा स्वधा प्रलं- वषाड़ योगाच्च" ( पा० २.३.१६ ) जैसे सूत्रों से विहित 'चतुर्थी' आदि विभक्तियां । इसलिये, क्रिया में अन्वित न होने के कारण वैयाकरण षष्ठी विभक्ति तथा 'उपपद' विभक्ति के अर्थ ('सम्बन्ध' ) को 'कारक' नहीं मानते । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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