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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कारक-निरूपण ३१६ सूत्रमते कारकत्वम् ---प्रथमा विभक्ति के विधायक सूत्र "प्रातिपदिकार्थ मात्रे प्रथमा' (पा० २.३.४६) में 'कारक'-वाचक कोई पद नहीं है इसलिए 'प्रातिपदिक रूप प्रर्थ को ही प्रथमा विभक्ति का अर्थ मानना होगा। पर यदि महाभाष्य (२.३.४६) की "तिङ्-समानाधिकरणे प्रथमा" अथवा "अभिहिते प्रथमा' इन वार्तिकों के आधार पर 'कारकों' के कथित होने पर प्रथमा विभक्ति का विधान माना जाय तो, इन वार्तिकों में 'कारक' शब्द के अध्याहृत होने के कारण, 'कारक' को प्रथमा विभक्ति का अर्थ मानना होगा। प्रत एव''भाष्ये व्यवहारः- परन्तु जहां तक शाब्द बोध का प्रश्न है, चाहे 'प्रथमा' का अर्थ सूत्र के अनुसार 'प्रातिपदिकार्थ' हो या वार्तिकों के अनुसार 'कारक' हो इन दोनों ही स्थितियों में, प्रथमार्थ की 'कारकता' अर्थात् कियानिष्पादकता सिद्ध नहीं हो पाती क्योंकि 'प्रातिपदिकार्थ' अथवा 'कारक' का क्रिया में अन्वय नहीं होता। इस प्रश्न का उत्तर यहां यह दिया गया है कि प्रथमा विभक्ति के अर्थ 'प्रातिपदिकार्थ' का 'आख्यात' ('तिङ') के अर्थ 'कर्ता' आदि के साथ अभेदरूप से अन्वय होता है, अर्थात् 'कर्ता' आदि तथा प्रातिपदिकार्थ' को अभिन्न मान लिया जाता है और, तब 'कर्ता' में क्रिया-निष्पादकता है इसलिये परम्परया वह, किया-निष्पादकता प्रथमा विभक्ति के अर्थ में भी है ही। इसीलिये, प्रथमा विभक्ति के इन प्रयोगों में 'आख्यात' के अर्थ ('कर्ता' आदि) के द्वारा प्रथमा विभक्ति के अर्थ ('प्रातिपदिकार्थ') का क्रिया में अन्वय होने तथा इस रूप में किया का जनक होने के कारण, प्रथमा विभक्ति को महाभाष्य में 'कारक विभक्ति' कहा गया है। द्र०-"उपपदविभक्तेः कारक विभक्तिर्बलीयसी इति प्रथमा भविष्यति' (महा० २.३.१६) 'चत्रो भवति'."तात्पर्यम् - "प्रातिपदिकार्थ प्रथमा” (पा० २.३.४६) सूत्र के अनुसार 'चैत्रो भवति' (चैत्र है) इस प्रयोग में प्रथमा विभक्ति के अर्थ 'प्रातिपदिकार्थ' का पहले 'एकत्व'-विशिष्ट 'कर्ता के साथ 'अभेद' सम्बन्ध से अन्वय होता है फिर 'कर्ता' का 'पचति' क्रिया के साथ अन्वय होता है । "तिङ-समानाधिकरणे प्रथमा" तथा "अभिहिते प्रथमा" इन वार्तिकों का अभिप्राय यह है कि 'पाख्यात' अथवा 'कृत्' प्रादि प्रत्ययों द्वारा कर्ता' आदि का कथन हो जाने पर भी प्रथमा विभक्ति द्वारा एक ऐसी कर्तृत्वशक्ति का कथन होता है जो 'पाख्यात' या 'कृत्' द्वारा नहीं कही गयी हैं। कर्माख्याते इति बोधः--'चैत्रेण ग्रामो गम्यते' (चैत्र के द्वारा गांव जाया जाता है) जैसे कर्मवाच्य के प्रयोगों में 'कारकों' का क्रिया में अन्वय होने के कारण "चैत्र है 'कर्ता' तथा ग्राम है 'कर्म' जिस में ऐसे गमन 'व्यापार' से उत्पन्न होने वाला संयोग" यह शाब्द बोध होता है। यहां पहले 'कर्मत्व ग्राम में है' इस बात का ज्ञान होता है। फिर उसके बाद, 'कर्मत्व' तथा 'फल' दोनों का समान अधिकरण होने के कारण "फल' भी 'कर्म' (ग्राम) में है" इस प्रकार का ज्ञान होता है जिसे टीकाकारों ने 'आर्थी' प्रतीति कहा है । इसीलिये नागेश ने यहाँ 'चैत्रेण ग्रामो गम्यते' में शाब्द बोध की चर्चा करते हुए 'संयोग'रूप 'फल' को ग्राम से अभिन्न जो 'कर्म' उस में रहने वाला" (ग्रामाभिन्न-कर्म-निष्ठः संयोगः) कहा है। For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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