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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३०३ लकारार्थ-निर्णय चाहिये' इस ज्ञान) का बोध होता है, यह कहा गया है। 'नियोज्यता' यद्यपि शब्द द्वारा नहीं कही गयी फिर भी 'योग्यता' (आकांक्षा) के कारण, जिस प्रकार 'द्वारम्' (दरवाजा) कहने पर, 'पिधेहि' (बन्द करो) का ज्ञान होता है उसी प्रकार, शाब्दबोध में उसका ज्ञान होता है । ____ याग से 'अपूर्व' की उत्पत्ति होती है और वह 'अपूर्व' स्वर्ग का साधन है । अत: 'अपूर्व' का साधन याग भी परस्परया स्वर्ग का साधन है। यह सब जो कुछ ऊपर कहा गया उसी की पुष्टि यहां की जा रही है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, किसी भी कार्य में प्रवृत्ति होने के लिये 'नियोज्यता'- अर्थात् यह कार्य मेरे इष्ट का साधक है मतः मुझे यह कार्य करना चाहिये इस प्रकार की कर्तव्य-बद्धि --का होना आवश्यक है। स्पष्ट है कि याग में यह 'नियोज्यता' तब तक नहीं उत्पन्न हो सकती जब तक यह न पता लगा जाय कि याग स्वर्ग का साधन है । और सीधे सीधे याग को स्वर्ग का साधन बताया नहीं जा सकता क्योंकि याग क्षणिक है, शीघ्र ही नष्ट हो जाने वाला है, जबकि स्वर्गरूप 'फल' कहीं मृत्यु के उपरान्त मिलने वाला है। इसलिये याग को साक्षात् स्वर्ग का साधन नहीं माना जा सकता । परम्परा से भी याग तब तक स्वर्ग का साधन नहीं बन सकता जब तक याग से 'अपूर्व' या 'अदृष्ट पुण्य' की उत्पत्ति की कल्पना को न माना जाय । इसलिये यह आवश्यक है कि 'स्वर्ग-कामो यजेत' इस वाक्य के प्रथम अर्थ में याग से उत्पन्न (याग है 'करण' या साधन जिसका ऐसे) 'अपूर्व' को जो स्वर्ग का साक्षात् साधन है, प्रस्तुत किया जाय । और उसके बाद द्वितीय अर्थ में, उस 'अपूर्व' की स्वर्ग:साधनता के द्वारा परम्परया, अर्थात् 'अपूर्व' स्वर्ग का साधन है और याग 'अपूर्व' का साधन है इसलिए, याग भी स्वर्ग का साधन है इस बात का निश्चय कराया जाय । इस प्रकार याग में स्वर्ग-साधनता-ज्ञान के निश्चय हो जाने के उपरान्त तृतीय अर्थ में यह ज्ञान कराया जाय कि, याग स्वर्ग का साधन है इसलिये, स्वर्गाभिलाषी को याग करना चाहिये। इस रूप में याग-विषयक प्रवृत्ति में हेतु होने के कारण यह तृतीय बोध ही प्रमुख है। चतुर्थ तथा पंचम बोध तो क्रमशः 'कृति' की प्राश्रयता तथा याग-विषयक प्रवृत्ति के उत्पादन के लिये कल्पित किये गये हैं। वस्तुतः इन पाँच प्रकार के बोधों में वैदिक-वाक्यों की दृष्टि से भी प्रथम तथा तृतीय ही आवश्यक हैं । द्वितीय, चतुर्थ तथा पंचम अर्थ तो एक तरह से मानसिक अर्थ ही हैं । यद्यपि स्पष्टीकरण के लिये वे भी आवश्यक हैं, परन्तु लौकिक प्रयोगों में प्रथम तथा द्वितीय बोध भी आवश्यक नहीं है क्योंकि वहां लौकिक, प्रत्यक्ष प्रादि, प्रमाणों के द्वारा ही उन-उन क्रियानों की 'फल'-साधनता ज्ञात हैं। अपनी शब्दशक्तिप्रकाशिका में जगदीश भट्टाचार्य ने-वैदिक वाक्यों में – केवल प्रथम तथा तृतीय ये दो ही बोध प्रभाकर मतानुयायी मीमांसकों को अभिमत हैं-यह प्रतिपादित किया है । (द्र०-पृ० ४२३) नियोज्यत्वं च .... इतिवत्-- 'स्वर्गकामो यजेत' इस वाक्य के अर्थ में 'नियोज्यता' की बात कहीं शब्द द्वारा नहीं कही गयी है । फिर भी इस वाक्य से होने वाले 'शाब्दबोध' में 'याकांक्षा' के द्वारा उसकी प्रतीति हो जायगी। क्योंकि स्वर्गप्राप्ति का अभिलाषी होने For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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