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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लकारार्थ-निर्णय २८७ पाणिनि के "लुत्तमो वा" सूत्र की सार्थकता के लिये यह आवश्यक है कि 'ग्रह चकार ' जैसे 'उत्तम पुरुष' के प्रयोगों को साधु माना जाय और यदि इन प्रयोगों को साधु माना गया तो 'लिट् लकार का अर्थ 'परोक्षत्व - विशिष्ट भूतकाल' नहीं माना जा सकता क्योंकि वक्ता स्वयं अपने से परोक्ष कार्य को नहीं कर सकता । इस प्रश्न का उत्तर यह दिया गया कि “गलुत्तमो वा " सूत्र की सार्थकता तो इस तरह हो जाती है कि चित्त की अव्यवस्था के कारण कभी-कभी वक्ता स्वयं अपने द्वारा किये गये कार्यों को नही जान पाता, वे कार्य स्वयं उस कर्त्ता से 'परोक्ष' ही रहा करते हैं । इसलिये चित्त की अव्यवस्था आदि के कारण परोक्षता को उपपत्ति हो जाने से सुप्तोऽहं किल विललाप', 'मत्तोऽहं किल विचचार' इत्यादि प्रयोग प्रचलित हो गये । इसी बात को पतंजलि ने "परोक्षे लिट् " सूत्र के भाष्य की निम्न पंक्तियों में स्पष्ट किया है : " भवति वै कश्चिद् जाग्रद् अपि वर्तमानकालं नोपलभते । किं पुनः कारणं वर्तमानकालं नोपलभते ? मनसा संयुक्तानि इन्द्रियाणि उपलब्धौ कारणानि भवन्ति । मनसोऽसान्निध्यात्" ( महा० ३.२.११५), अर्थात् मन युक्त इन्द्रियों से वस्तु आदि का ज्ञान होता है । अतः चित्त-विक्षेप आदि के कारण मन की अनुपस्थिति से जाग्रद-अवस्था में भी व्यक्ति को वर्तमानकालिक वस्तु आदि का ज्ञान नही हो पाता । इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि "परोक्षे लिट् " सूत्र में 'परोक्ष' पद का तात्पर्य 'परोक्ष' सदृश है। श्रुतः, 'परोक्ष' न होने पर भी, 'परोक्ष सदृश' होने के कारण उपर्युक्त प्रयोग सिद्ध हो जायेंगे । इस तरह " लुत्तमो वा " सूत्र की सार्थकता तथा 'लिट्' का अर्थ 'परोक्षत्व विशष्ट भूतकाल' इन दोनों बातों की सिद्धि हो जाती है । 'चक्रे सुबन्धुः' (सुबन्धु ने ग्रन्थ विशेष की रचना की) इत्यादि प्रयोगों में चित्त विक्षेप आदि के द्वारा परोक्षता की सिद्धि नहीं की जा सकती क्योंकि चित्त के विक्षिप्त या अस्थिर होने पर ग्रन्थ रचना जैसा कार्य, जो केवल एकाग्र एवं स्थिर चित्त से ही सम्भव है, नहीं हो सकता । इसलिये यहाँ 'चक्रे' को लिट् लकार का प्रयोग न मान कर 'तिङन्त' सदृश एक 'निपात' माना गया । इसी प्रकार का एक और प्रयोग है - "व्यातेने किरणावलीम् उदयनः " ( उदयन ने किरणावली ग्रन्थ का विस्तार किया) । यहाँ भी किरणावली जैसे विशिष्ट ग्रन्थ के लिखने के लिये मन की पर्याप्त एकाग्रता आवश्यक है । इसलिये यहाँ 'लिट् ' लकार के प्रयोग को 'कौण्डभट्ट ने असाधु मान लिया है १५४-५५) । - वैभूसा० पृ० For Private and Personal Use Only द्र० परन्तु नागेश भट्ट ने यहाँ 'अपरोक्षता' में भी 'परोक्षता' का 'आरोप' कर के उसकी संगति लगाने का प्रयास किया है। उनका कहना है कि 'अपरोक्षता' में भी 'परोक्षता' के आरोप का प्रयोजन यह है कि "व्यातेने किरणावलीम् उदयनः " को सुनकर लोगों को ग्रन्थ की सुकरता' तथा 'उस ग्रन्थ का बहुत अल्पकाल में रचा जाना' इत्यादि अभिप्रायों का श्रोता को पता लग जाय ( द्र० - लघुमंजूषा पृ० ६२१-२२ ) ।
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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