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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org लकारार्थ - निर्णय २८५ इस प्राचीन नैयायिकों की परिभाषा में 'अव्याप्ति' दोष भी है । 'नष्ट: घट : ' ( घड़ा टूट गया) इस प्रकार के प्रयोगों में 'वर्तमान ध्वंस- प्रतियोगित्व' लक्षण नहीं घटता क्योंकि यहां 'नाश' वर्तमान कालिक ध्वंस का 'प्रतियोगी' नहीं है । 'नाश' तो ध्वंस का प्रतियोगी तब बन सकता है जबकि घट के 'नाश' का अभाव या ध्वंस हो रहा हो । यहां तो 'नाश' ही है उसका ध्वंस नहीं । इसलिये नवीन नैयायिकों का यह विचार है कि 'वर्तमान-ध्वंस प्रतियोगी' के साथ 'उत्पत्ति' पद और जोड़ देना चाहिए तथा 'वर्तमान-ध्वंस प्रतियोग्युत्पत्तिकत्वं भूतत्वम्' यह 'भूतकाल की परिभाषा माननी चाहिये । अब परिभाषा का स्वरूप यह हुआ कि वर्तमानकालीन ध्वंस या प्रभाव की 'प्रतियोगिनी' जो प्रतीतकालिक क्रिया उसकी 'उत्पत्ति' जिस काल में हुई वह विशिष्ट काल ही 'भूत'काल है । इस प्रकार 'उत्पत्ति' पद के संयुक्त हो जाने के कारण बहुत पहले उत्पन्न घट के लिये ' पूर्वेद्यर् अभवत्' प्रयोग नहीं हो सकता क्योंकि ध्वंस की 'प्रतियोगिनी' जो घटोत्पत्तिरूप क्रिया उसकी 'उत्पत्ति' का काल कल ( पूर्वेद्युः) न होकर उससे पहले का है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसी प्रकार इस 'उत्पत्ति' पद के जोड़ देने से ऊपर प्रदर्शित 'अव्याप्ति' दोष का भी निराकरण हो जाता है क्योंकि यहां 'उत्पत्ति' पद का अन्वय, 'प्रतियोगिनी' क्रिया की 'उत्पत्ति' के प्राश्रयभूत, देश तथा काल में किया जाता है। इस तरह 'नाश' की उत्पत्ति रूप क्रिया वर्तमान कालीन 'नाश' की प्रतियोगिनी है । इस नाशोत्पत्ति रूप क्रिया का श्रयभूत जो काल वही 'नाश' का 'भूत' काल है। नवीन नैयायिकों के मत लिये द्रष्टव्य“भूतत्वं चोत्पत्तावन्वेति । तथा च विद्यमानध्वंस प्रतियोग्युत्वत्तिकत्वं लब्धम् " (तर्कामृतम् से न्यायकोश में उद्धृत) । अभवत् ' -~. विशेषः - 'घटोऽभवत्' (घड़ा उत्पन्न हुना) तथा 'घटो नष्ट:' ( घड़ा टूट गया) इन दो प्रयोगों में केवल ग्रन्तर यह है कि पहले प्रयोग 'घटोऽभवत्' में जो यह अर्थ किया गया कि 'घड़े की उत्पत्ति रूप क्रिया का प्रभाव' उसमें उत्पत्ति रूप अर्थ 'भू' धातु ही ज्ञात हो जाता है क्योंकि 'भू' का अर्थ ही उत्पत्ति है । परन्तु दूसरे प्रयोग 'घटो नष्ट:' में जो 'घड़े के नाश की उत्पत्ति रूप क्रिया का अभाव' यह अर्थ है उसमें 'उत्पत्ति रूप' अर्थ धातु का न हो कर 'क्त' प्रत्यय का मानना होगा क्योंकि यहाँ 'नश्' धातु प्रयुक्त है, जिसका अर्थ 'उत्पत्ति' कभी नहीं होता अपितु 'उत्पत्ति' के विपरीत सदा 'विनाश' अर्थ ही होता है । १. २. [ 'लिट्' लकार के अर्थ - 'भूत' काल तथा 'परोक्षता' - के विषय में विचार ] ह० -- प्रयोगदर्शनात् 1 निस०, काप्रशु० ननु । लिटस्तु भूतकाल इव परोक्षत्वम् ग्रप्यर्थ:, 'अहं चकार' इत्यादिप्रयोगादर्शनात् । न चैवं "लुत्तमो वा", (पा० ७. १.६१ ) इति ज्ञापकात् उत्तमपुरुषस्तत्र स्याद् इति For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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