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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लकारार्थ-निर्णय तथा 'दण्डेन' इत्यादि (प्रयोगों) में 'करणत्व' तथा 'एकत्व' का परस्पर सम्बन्ध होने लगेगा (यदि यह कहा जाए तो?) ऐसी बात नहीं है । क्योंकि (ऊपर) कथित (उस पद से उत्पन्न 'शाब्दबोध' में दूसरे पद का अर्थ कारण होता है' इस) व्युत्पत्ति में "उन उन (जिनके अपने दो अर्थो का परस्पर अन्वय अभीष्ट है ऐसे सभी 'लट्' तथा 'एव' आदि) पदों से भिन्न" (इतने अंश) का प्रवेश हो जायगा। अन्यथा (ऐसा न करने से) 'एवकार' के दो - 'अन्ययोग' (भी) तथा 'व्यवच्छेद' (ही)-अर्थो में (अभीष्ट) पारस्परिक अन्वय कैसे होगा? ननु हेतुत्वात् - यहाँ पूर्वपक्ष के रूप में यह प्रश्न किया गया कि 'कृति' तथा 'वर्तनानता' इन दोनों अर्थों का वाचक यदि एक लट' पद ही है तो इन दोनों अर्थों का परस्पर अन्वय कैसे होगा। दो अर्थो के पारपरिक अन्वय के लिये यह आवश्यक है कि दोनों में 'आकांक्षा' हो। एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ के साथ, उन दोनों में विद्यमान आकांक्षा' के कारण ही, अन्वय होता है । वस्तुत: 'याकांक्षा' के द्वारा ही दोनों पदार्थो के ऐसे पारस्परिक सम्बन्ध का पता लगता है जिसमें एक पदार्थ 'अनुयोगी' होता है तथा दूसरा 'प्रतियोगी' । 'जैसे-'नीलो घट:' (नीला घड़ा) इस वाक्य में 'नीलः' तथा 'घटः' इन दोनों पदार्थों का जो परस्परिक सम्बन्ध है उसमें नील 'प्रतियोगी' तथा घट 'अनुयोगी' है। इस सम्बन्ध का ज्ञान इन दोनों में विद्यमान, नील में घट-विषयक तथा घट में नील-विषयक, 'आकांक्षा' के कारण ही होता है। दो पदार्थों का यह सम्बन्ध कहीं अभिन्न रूप में होता है, जैसे-ऊपर के उदाहरण में, तथा कहीं भिन्न रूप में, जैसे ----'नीलस्य घटः' इत्यादि में जहाँ 'प्राधार-प्राधेयभाव' या विषयविषयिभाव' इत्यादि सम्बन्ध माने जाते हैं । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि 'याकांक्षा' का पदार्थों के पारस्परिक अन्वय में प्रमुख हाथ है तथा वह दो पदों के अर्थों में रहती है । यहाँ 'कृति' तथा 'वर्तमानता' दोनों ही एक पद 'लट्' के अर्थ हैं, इसलिये उनमें 'पाकाँक्षा' नहीं मानी जा सकती और 'आकांक्षा' के अभाव में दोनों का अन्वय नहीं हो सकता। गदाधरभट्ट ने अपने व्युत्पत्तिवाद का प्रारम्भ ही इस नियम वाक्य से किया :- "शाब्दबोधे च एकपदार्थेऽपरपदार्थस्य संसर्गः संसर्गमर्यादया भासते” (व्युवा०, पृ०१), अर्थात् शाब्दबोध में एक पदार्थ में दूसरे पदार्थ का सम्बन्ध 'आकांक्षा' से प्रकट होता है। कार्यतावच्छेदिका विशेष्यता :- यहाँ नियम का जो यह रूप है-"किसी पद से उत्पन्न 'शाब्दबोध' रूप कार्य में उस पद से भिन्न पद के अर्थ का ज्ञान कारण होता है"--उसमें 'कार्यता' का अवच्छेदक सम्बन्ध, (जिस सम्बन्ध से कार्य अपने उत्पत्ति स्थान में रहता वह सम्बन्ध) 'प्रकारता' या दूसरे शब्दों में 'विशेषणता" है। यहां सम्बन्ध को ही 'प्रत्यासत्ति' कहा गया है। इसी प्रकार 'कारणता' का 'अवच्छेदक सम्बन्ध' ('कारणता' जिस सम्बन्ध से अपने 'कार्य' में रहती है वह सम्बन्ध) 'विशेष्यता' है । इसका अभिप्राय यह है कि एक पद से उत्पन्न अर्थ विशेषण बनता है तथा उसका विशेष्य (विषय) बनता है दूसरा पदार्थ; जो पहले पदार्थ में विद्यमान, इस दूसरे पदार्थ-विषयक, 'आकांक्षा' के कारण उपस्थित होता है। जैसे-'नीलो घट:' प्रयोग में, 'नील' पदार्थ में विद्यमान घटपदार्थ-विषयक 'आकांक्षा' के कारण उपस्थित होने वाला 'घट' विशेष्य है For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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