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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७० वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा ('आख्यात' के अर्थ 'यत्न', 'संख्या' तथा 'काल' आदि और धातु के अर्थ 'फल' तथा व्यापार') तो दोनों ही (कर्तृवाच्य तथा कर्मवाच्य के प्रयोगों) में समान हैं। विशेष्य-विशेषरणभावभेदेन :-कर्मवाच्य के प्रयोगों में कृति' विशेष्य होती है तथा 'कर्ता' उसका विशेषण बनता है। जैसे-'मैत्रेण गम्यते ग्रामः' इस वाक्य के शाब्दबोध में मैत्रनिष्ठ 'यत्न' की प्रतीति होती है जिस में 'मैत्र' विशेषण तथा 'यत्न' विशेष्य है । परन्तु कर्तृवाच्य के प्रयोगों में इससे भिन्न विशेष्य-विशेषणभाव होता है। यहाँ 'कर्ता' विशेष्य तथा 'कृति' उसका विशेषण बनती है। जैसे-'ग्राम गच्छति मैत्रः' में "ग्रामनिष्ठ जो 'फल' (संयोग) उसके जनक (गमन 'व्यापार') के अनुकूल जो 'कृति' उससे विशिष्ट मैत्र" की प्रतीति होती है। यहाँ 'कृति' मैत्र का विशेषण है और मैत्र उसका विशेष्य । इस विशेष्य-विशेषरणभाव की भिन्नता के कारण इन दोनों स्थलों के शाब्दबोध में भी भिन्नता आ जाती है। नैयायिक की इस व्यवस्था का संक्षिप्त अभिप्राय यह है कि कर्तृवाच्य में 'कृति' 'लकार' का अर्थ है तथा 'फल' द्वितीया विभक्ति का अर्थ है। कर्मवाच्य के प्रयोगों में 'फल' 'लकार' का, 'कृति' तृतीया-विभक्ति का तथा 'व्यापार' धातु का अर्थ है । परन्तु यह सारी व्यवस्था, यहाँ के प्रारम्भिक कथन- "कृति का वाचक 'लत्व' है तथा 'फल' का वाचक 'प्रात्मनेपदत्व" - तथा नैयायिकों के सिद्धान्त वाक्य -- "फल' तथा 'व्यापार' धातु के अर्थ होते हैं और 'यत्न' 'लकार' का अर्थ होता हैं" ---- इन दोनों की दृष्टि से, सर्वथा असंगत एवं असम्बद्ध प्रतीत होती है क्योंकि एक स्थान पर 'फल' को धातु का अर्थ तथा 'कृति' को 'लकार' का अर्थ कहा जा रहा है तो दूसरी जगह 'कृति' को द्वितीया अथवा तृतीया विभक्ति का अर्थ माना जा रहा है और 'फल' को 'लकार' का अथवा 'पात्मनेपदत्व' का अर्थ कहा जा रहा है। [कर्मवाच्य तथा कर्तृवाच्य के कुछ और प्रयोग] 'मैत्रेण ज्ञायते, इष्यते, क्रियते घटः' इत्यादौ तु वृत्तिस्तृ- . तीयायाः, विषयता त्वाख्यातस्य अर्थः । 'मैत्रवृत्तिज्ञानविषयो घटः' इति बोधः । 'घटं जानाति मैत्रः' इत्यादौ तु विषयता द्वितीयायाः आश्रयत्वं चाख्यातस्य अर्थः । 'घटविषयकज्ञानाश्रयो मैत्रः' इति बोधः । 'मैत्रेण ज्ञायते, इष्यते, क्रियते घटः' (मैत्र के द्वारा घड़ा जाना जाता है, चाहा जाता है, बनाया जाता है) इत्यादि (प्रयोगों) में 'वृत्ति' (तन्निष्ठता) तृतीया (विभक्ति) का अर्थ है और 'विषयता' (विषय बनाना); 'याख्यात' का अर्थ है । "मैत्र में ('समवाय' सम्बन्ध से) रहने वाले ज्ञान का विषय घट है" For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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