SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org दस से भी शब्दों को नित्य माना जा सकता है । महासत्ता अथवा ब्रह्म है । अतः नित्य है । शब्द सम्बन्ध की नित्यता स्वतः सिद्ध हो जाती है । ६. वाप० २.३४३; व्याकररण-दर्शन की परम्परा' - संस्कृत-व्याकरण के मूल भूत तत्त्वों-- नाम, प्रख्यात, उपसर्ग, निपात, क्रिया, लिंग, वचन, विभक्ति, प्रत्यय आदि के विषय में बहुत प्रारम्भिक काल से दार्शनिक चिन्तन प्रारम्भ हो गया था । आचार्य यास्क के निरुक्त ग्रन्थ के प्रारम्भ' में ही नाम, प्रख्यात, उपसर्ग तथा निपात के स्वरूप आदि के विषय में पर्याप्त गम्भीर विवेचन मिलता है । सम्भव है इस प्रकार का विवेचन यास्क से पूर्व के अन्य निरुक्त ग्रन्थों में भी किया गया हो । उपसर्ग तथा नाम शब्दों के स्वरूप के सम्बन्ध में अपने से पूर्ववर्ती आचार्य गार्ग्य तथा शाकटायन के परस्पर विरोधी मतों का उल्लेख यास्क ने अपने निरुक्त' में किया भी है। इसी निरुक्त में उद्धृत एक आचार्य प्रौदुम्बरायण के अखण्ड वाक्यविषयक, व्याकररणदर्शन के प्रमुख एवं आधारभूत सिद्धान्त' का उल्लेख भर्तृहरि ने वाक्यपदीय' में, भरत मिश्र ने स्फोटसिद्धि में तथा महाभाष्य के एक टीकाकार' ने अपनी टीका में किया है । यास्क' ने भी शब्द को 'व्याप्तिमान्' तथा 'अरणीयस्' कह कर शब्द के नित्यत्व एवं सूक्ष्मत्व का निर्देश किया है। भारतीय संस्कृति के आदि ग्रंथ ऋग्वेद में" वाणी, वाक् अथवा शब्द को विविध रूपों से युक्त तथा नित्य कहा गया है । अथर्ववेद" में भी वाणी को वक्ता में नित्य रूप से रहने वाला कहा है । शब्द- नित्यत्व के सिद्धान्त पर प्रतिष्ठित एक दूसरे सिद्धान्त स्फोटवाद का सम्बन्ध पाणिनि मे पूर्ववर्ती प्राचार्य स्फोटायन से माना जाता है जिन्हें हरदत्त ने पदमंजरी" में स्फोटतत्त्व का प्रथम प्रचारक तथा स्वोपज्ञाता कहा है । 1 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शब्दों का अर्थ भी परम्परया जाति तथा अर्थ के नित्य होने पर उनके परन्तु व्याकरणदर्शन के स्पष्ट एवं सुव्यवस्थित स्वरूप का प्रारम्भ प्राचार्य पाणिनि (ईस्वी पूर्व पाँचवीं शताब्दी) के समय से माना जा सकता है । इसमें कोई सन्देह १. इस विषय के विस्तृत अध्ययन के लिये द्र० - पं० युधिष्ठिर मीमांसक द्वारा प्रणीत व्याकरणशास्त्र का इतिहास, (प्रथम संस्करण) भा० २, पृ० ३४२-३६८ तथा डा० रामसुरेश त्रिपाठी द्वारा लिखित संस्कृत व्याकरण दर्शन, प्रथम अध्याय, पृ० १ ३३. २. द्र० - निरुक्त १.१ ३. द्र० - वही १.३; न निर्बद्धा उपसर्गा अर्थान्निराहुरिति शाकटायनः । नामाख्यातयोस्तु कर्मोपसंयोगद्योतका भवन्ति । उच्चावचा पदार्था भवन्तीति गार्ग्य: । तथा १.१२; तत्र नामान्याख्यातजानीति शाकटायनो नैरुक्तसमयश्च । न सर्वाणीति गायों व याकरणानां चैके । ४. द्र० – निरुक्त १.१. इन्द्रियनित्यं वचनम् ओदुम्बरायणः । ५. इस विषय में द्र० मेरा लेख : " यास्क तथा भर्तृहरि की दृष्टि में आचार्य औदुम्बरायण का शब्ददर्शन" कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय रिसर्च जरनल, अक्तूबर १९७२ । वाक्यस्य बुद्धौ नित्यत्वमर्थयोगं च लौकिकम् । दृष्ट्वा चतुष्ट्व नास्तीति वार्त्ताक्षोदुम्बरायणौ ॥ ७. स्फोटसिद्धि पृ० १ ८. द्र० – संस्कृत व्याकरण दर्शन - डा० रामसुरेश त्रिपाठी, पृ० १३६ ६. निरुक्त १.२, व्याप्तिमत्त्वात्त शब्दस्याणीयस्त्वाच्च शब्देन संज्ञाकरणं व्यवहारार्थं लोके । १०. द्र० ऋ० ८.७५.६; वाचा विरूपनित्यया । ११. द्र० अ० – २.१.४; वाचमिव वक्तरि भुवनेष्ठाः । १२. पदमंजरी – ६.१.१२३; स्फोटोऽयनं पारायणं यस्य स स्फोटायनः स्फोटप्रतिपादनपरो वैयाकरणचार्यः । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy