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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २३२ www.kobatirth.org वैयाकरण सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा 'अनियोग' के उदाहरण के रूप में 'क्वेव भोक्ष्यसे' प्रयोग मिलता है जिसका अभिप्राय है - 'कहो खाओगे, अब तो कहीं भी भोजन नहीं मिलेगा ?' देर से आए हुए व्यक्ति के लिये इस प्रकार का उलाहना दिया जाता है। यहां 'एव' का अर्थ 'असम्भावना' है । अथवा इस वाक्य का दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि अनेक स्थानों से निमन्त्रण आया है, उनमें में किस स्थान पर खायोगे ? इस द्वितीय अभिप्राय में 'एव' का अर्थ अनिश्चय' है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस वार्तिक में 'नियोग' का अर्थ जिनेन्द्रबुद्धि इत्यादि कुछ विद्वान् 'नियोजन', अर्थात् 'व्यापार', करते हैं ( द्र० - न्यास ६.१.६४ ) । परन्तु इस अर्थ को स्वीकार करने से अनेक प्रयोगों में दोष उपस्थित होता है जिनका प्रदर्शन प्रौढ़मनोरमा इत्यादि में किया गया है । इसलिये 'नियोग' का अर्थ 'अवधारण ही करना चाहिये । [अवधारण के तीन प्रकार ] श्रनयोरर्थयोः 'एव' शब्दो द्योतकः - 'एव' शब्द इन दोनों, 'नियोग' तथा 'नियोग', अर्थों का द्योतक है वाचक नहीं क्योंकि 'एव' के प्रयोग के बिना भी अनेक स्थलों में इन अर्थों की प्रतीति होती है तथा 'एव' को द्योतक मानने पर ही "सर्व वाक्यं सावधारणम्" (सभी कथन नियम से युक्त होता है) यह वृद्ध आचार्यों का कथन सुसंगत होता है । इस प्रसंग में प्राचार्य पतंजलि का निम्न कथन द्रष्टव्य है जहाँ से यह आशय निकलता है कि बिना 'एव' के प्रयोग के भी 'अवधारण' अर्थ की प्रतीति होती है- "अथवा सन्ति एकपदानि अप्यवधारणानि । तद्यथा - 'अब्बक्षो' 'वायु-भक्ष:' इति । अप एव भक्षयति वायुमेव भक्षयति इति गम्यते " 1 ( महा० भा० १, पृ० ४९ ) । यहाँ 'एकपदानि' का अभिप्राय है कि 'एव' शब्दरहित एक पद भी अवधारण अर्थ वाले होते हैं । 'एव' का प्रयोग करने पर तो द्विपद अवधारण हो जायगा क्योंकि द्योतक रूप में 'एव' की भी अपेक्षा होगी ही । " तच्चावधारणं त्रिविधम् । विशेष्य-संगत- एवकारे'ग्रन्ययोगव्यवच्छेद रूपम्', विशेषण संगत - एवकारे— 'प्रयोगव्यवच्छेदरूपम्,’ क्रियासंगत- एवकारे— 'ग्रत्यन्तायोगव्यच्छेदरूपम्' । - विशेष्ये – 'पार्थ एव धनुर्धरः' । 'पार्थेतरावृत्ति यद्धनुर्धरत्वं तादृशधनुर्धरत्ववान् पार्थः" इति बोधः, इति अन्यस्मिन् धनुर्धरत्व- सम्बन्ध-व्यवच्छेदः । विशेषणे - 'शंखः पाण्डुर एव' । 'प्रयोगः' सम्बन्धाभावः । तस्य व्यवच्छेदो निवृत्तिः । द्वाभ्यां निषेधाभ्यां प्रकृतदाबोधनेन 'प्रव्यभिचरित - पाण्डुरत्वगुरणवान् शंखः' इति For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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