SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 290
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निपातार्थ-निर्णय २२६ ततः प्रश्चात् निवृत्तिं करोति" (महा० २.२.६, पृ० १७८) । इस पंक्ति का भी यही आशय है कि शब्द के द्वारा वाच्यार्थ के रूप में उत्पन्न एवं बुद्धि के विषयभूत जो "क्रिया' अथवा 'गुण' उनका ही प्रतिषेध 'नन्' निपात करता है। ['घटो: न पटः' इस प्रयोग के अर्थ के विषय में विचार तथा उसके सम्बन्ध में नैयायिकों के मत का खण्डन] 'घटो न पट:' इत्यत्र ‘घट'पदस्य घटप्रतियोगिकभेदाश्रये अप्रसिद्धा शक्तिरेव लक्षणा, 'न'पदं तात्पर्यग्राहकम् । तात्पर्यग्राहकत्वं द्योतकत्वमेव इत्युक्तम् । अतएव "अन्योन्याभावबोधे प्रतियोग्यनुयोगिपदयोः समान विभक्तिकत्वं नियामकम्" इति वृद्धोक्तं संगच्छते । यत्त -'घट'पदं घटप्रतियोगिके लाक्षणिक 'नन्'पदं तु भेदवति, अतो 'घटप्रतियोगिकभेदवान् पट:' इतिबोध इतितार्किकैरुक्तम्, तन्न । भेदवति नञर्थे भेदस्य एकदेशत्वात् तत्र घटार्थानन्वयापत्ते: “पदार्थः पदार्थेन अन्वेति न तु पदार्थंकदेशेन" इति न्यायात् । पदद्वये लक्षणा-स्वीकारे गौरवाच्च । भाष्य-मते लक्षणाया निपातानां वाचकत्वस्य च स्वीकाराभावाद् इति संक्षेपः । 'घटो न पटः' (घड़ा वस्त्र नहीं है) इस (प्रयोग) में घट शब्द की, 'घट' है 'प्रतियोगी' ('विशेषरण') जिसमें ऐसी 'भिन्नता के आश्रय ('पट') में अप्रसिद्ध (अभिधा) 'शक्ति' अथवा (दूसरे शब्दों में) 'लक्षणा' है । 'न' पद इस तात्पर्य का ग्राहक है । तात्पर्यग्राहकता (का अभिप्राय) द्योतकता ही है यह कहा जा चुका है। इसीलिये वृद्ध विद्वानों का-"अन्योऽन्याभावबोधे प्रतियोग्यनुयोगिपदयोः समानविभक्तिकत्वं नियामकम्" ('अन्योऽन्याभाव' के ज्ञान में प्रतियोगी' पदों का समान अथवा एक विभक्ति में प्रयुक्त होना कारण है) यह कथन सुसङ्गत होता है। नैयायिकों ने जो यह कहा है कि- “घट' शब्द 'घटप्रतियोगिक' (घट का' इस अर्थ) में 'लाक्षणिक' प्रयोग है तथा 'नञ्' शब्द तो 'भेद' के आश्रय ('पट') में (लाक्षणिक' प्रयोग है) । इसलिये ('घटो न पटः' इस प्रयोग से) 'घट' है 'प्रतियोगी' ('विशेषण') जिसमें ऐसी भिन्नता से युक्त पट यह शाब्द-वोघ होता है"-वह उचित नहीं है । इसका कारण यह है कि 'न' के अर्थ 'भेदवान्' में 'भेद' एक देश (एक भाग या अंश) है इसलिये उस ('न' पद के अर्थ के एकदेशभूत अर्थ 'भेद') में For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy