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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निपातार्थ निर्णय २२५ साथ उसका सामानाधिकरण्य होगा क्योंकि 'सत्ता' रूप क्रिया का कर्ता वह 'प्रभाव' ही है । अतः 'अहं नास्मि' इत्यादि सभी प्रयोगों में 'प्रभाव' के अनुसार केवल 'श्रन्यपुरुष' तथा 'एक वचन', अर्थात् 'अस्ति' क्रिया, का ही प्रयोग हो सकेगा, क्रमश: 'ग्रस्मि', 'असि', 'स्तः', 'सन्ति' इन भिन्न क्रियाओं का नहीं। यह एक महान् अनौचित्य दोष है । 'सन्देहः' इत्यादी फलितएव :- पर यदि इस सिद्धान्त को मान लिया जाय कि 'प्रत्यन्ताभाव' रूप 'ननर्थ', 'विशेष्य' (प्रधान) बन कर क्रिया में अन्वित होता है तो 'असन्देहः' इत्यादि 'प्रसज्यप्रतिषेध' के समासयुक्त प्रयोगों में "नव् तत्पुरुष में उत्तरपद के अर्थ की प्रधानता होती है" इस नियम का उल्लंघन होता है क्योंकि यहाँ तो अभाव की, जो 'नव्' का अर्थ है, प्रधानता है और इस प्रयोग में 'नञ्' समास का पूर्वपद है । इसलिये यहाँ पूर्वपदार्थ की प्रधानता माननी होगी । परन्तु इस आक्षेप का उत्तर यह है कि 'असन्देहः' जैसे उदाहरणों में 'प्रसज्य - प्रतिषेध' है ही नहीं, यहाँ तो 'पर्युदासप्रतिषेध' है । इसलिये 'प्रसन्देहः ' आदि प्रयोगों में 'नव्' का शाब्दिक अर्थ केवल 'आरोप' है । 'प्रत्यन्ताभाव' रूप अर्थ भले ही यहाँ प्रतीत हो रहा है पर वह फलित अर्थ है, अर्थात् 'नव्' के 'आरोप' रूप अर्थ- ज्ञान के उपरान्त ही उसका ज्ञान होता है। वायौ रूपं 'लक्षरणा : -- वैयाकररणों के उपर्युक्त सिद्धान्त को मानने पर 'वायो रूपं नास्ति' इस प्रयोग में असंगति उपस्थित होती है । अत्यन्ताभाव को प्रधान मानते हुए इस वाक्य का अर्थ होगा "आधारभूत वायु का प्राधेयभूत जो रूप वह है 'कर्ता' जिसका ऐसी सत्ता है 'प्रतियोगी' जिसमें ऐसा प्रभाव" ( वायु-निरूपिताधेयतावद्-रूपकर्तृक- सत्ता प्रतियोगिताको भावः) । परन्तु असत्य होने के कारण इस अर्थ को स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि सत्य तो यह है कि वायु में रूप होता ही नहीं । इसलिये जब वायु में रूप है ही नहीं तो वह सत्ता का कर्त्ता कैसे बन सकता है। इस कारण 'रूप-कर्तृक-सत्ता' अर्थ असत्य एवं असंगत है । इस असंगति के निवारणार्थं नागेश भटट् तीन समाधान यहाँ प्रस्तुत किये हैं। पहला यह है कि, उपरिनिर्दिष्ट तात्पर्य की अनुपपत्ति या असंगति होने के कारण, 'वायो रूपं नास्ति' इस प्रयोग के 'रूपम्' को 'रूप के प्रत्यन्ताभाव' अर्थ में लाक्षणिक प्रयोग माना जाय तथा 'नञ्' पद को उस तात्पर्य का ग्राहक माना जाय । इस स्थिति में वाक्य का अर्थ होगा - "रूपाभाव है 'कर्ता' जिसमें ऐसी, 'वायु' रूप 'अधिकरण' में रहने वाली, 'सत्ता"। इस प्रकार 'लक्षणा' का श्रवण करने तथा 'वायु' का 'सत्ता' में अन्वय कर देने से कोई दोष नहीं प्राता । वस्तुतस्तु" " फलितार्थ एवायम् :- परन्तु 'लक्षरणा' वृत्ति को मानने में एक प्रकार का गौरव है इसलिये 'वस्तुतस्तु' कह कर दूसरा समाधान दिया गया जो सम्भवतः नागेश का अपना मत है । यहाँ दो प्रकार के 'अभावों' की बात उठायी गयी है - 'रूप कर्तृक प्रभाव' तथा 'रूपाभाव । वायु में 'रूपकर्तृक प्रभाव' मानने में तो कठिनाई है। पर रूपाभाव मानने में कोई आपत्ति नहीं है । परन्तु वास्तविकता यह है कि ये दोनों ही प्रभाव 'समनियत' हैं- समान स्थान में रहने वाले हैं। दोनों में से कोई भी न्यून या अधिक स्थान में रहने वाला नहीं है, अर्थात् जहाँ 'रूपाभाव' है वहीं 'रूपकर्तृ' के सत्ता' का प्रभाव भी है - उससे अन्यत्र नहीं । इस प्रकार 'समनियत' होने के कारण ये For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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