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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निपातार्थ-निर्णय २२३ समस्तस्य अत्यन्ताभाव एवार्थः-- 'प्रसज्यप्रतिषेध' तथा 'पयुदासप्रतिषेध' की समास-युक्त तथा समासरहित स्थितियों में जो अर्थ प्रकट होते हैं उनकी चर्चा यहाँ की जा रही है । 'प्रसज्यप्रतिषेध' वाले 'न' का जब किसी सुवन्त पद के साथ समास हुआ रहता तो वहाँ 'अत्यन्ताभाव' अर्थ की अभिव्यक्ति होती है। 'तादात्म्य', अर्थात् 'अभेद'-सम्बन्ध, से भिन्न सम्बन्ध के प्रभाव को 'अत्यन्ताभाव' कहा जाता है । समासयुक्त 'प्रसज्यप्रतिषध' का उदाहरण है-'प्रसूर्यम्पश्या राजदाराः' (सूर्य को न देख पाने वाली रानियों)। यहाँ रानियों में, सूर्य को देखने की क्रिया' का जो अभाव है वह 'अत्यन्ताभाव' है, क्योंकि 'तादात्म्य-सम्बन्ध' से इतर ('समवाय') सम्बन्ध का यहाँ अभाव है। देखने वाले व्यक्ति में देखने की क्रिया' 'समवाय' सम्बन्ध से रहती है इसलिये उस क्रिया का न होना 'समवाय' सम्बन्ध का अभाव है। असमस्तस्य अत्यन्ताभाव:--समासरहित 'प्रसज्यप्रतिषेध' का उदाहरण है 'गेहे घटो नास्ति' (घर में घड़ा नहीं है)। यहाँ भी 'अत्यन्ताभाव' अर्थ ही है क्योंकि घट है 'कर्ता' जिसमें ऐसी सत्ता का प्रभाव भी 'तादात्म्य'सम्बन्ध से भिन्न ('समवाय') सम्बन्ध का ही अभाव है। अन्योऽन्याभावश्च- समासरहित 'पर्युदासप्रतिषेध' के प्रयोगों से 'अन्योन्याभाव' अर्थ प्रकट होता है। इसका उदाहरण है-'घटो न पटः' । यहाँ ‘पट' में जो 'घटत्व' का अभाव है वह 'तादात्म्य'सम्बन्ध का ही अभाव है। 'अन्योऽन्यः' का अर्थ है 'तादात्म्य' या 'अभेद' । इस 'तादात्म्य' के अभाव को ही 'अन्योऽन्याभाव' कहते हैं । समासरहित 'पर्युदासप्रतिषेध' का यह 'अन्योऽन्याभाव अर्थ फलित' अर्थ ही है क्योंकि उसका शाब्दिक अर्थ तो प्रारोपविषयता या 'आरोप' ही है। प्रागभावप्रध्वंसाभावो तु न नज्योत्यौ-'प्रागभाव' तथा 'प्रध्वंसाभाव' 'न' के द्योत्य अर्थ नहीं है। 'प्रागभाव' का उदाहरण है- 'घटो भवष्यति' (घड़ा उत्पन्न होगा) तथा 'प्रध्वंसाभाव' का उदाहरण है-'घटो नष्ट:' (घड़ा टूट गया)। शब्दशक्ति के स्वभाव के कारण दोनों ही प्रभाव 'न' के द्वारा घोतित नहीं हो पाते । यद्यपि जब ऐसे पक्के हुए घड़े के लिये जिसकी श्यामता नष्ट हो गयी है यह कहा जाता है कि 'श्यामो घटो नास्ति' (काला घड़ा नहीं है) तो ऐसा लगता है कि यहाँ 'प्रध्वंसाभाव' की प्रतीति 'न' से हो रही है। तथा इसी प्रकार, घड़ा बनने से पहले कपालावस्था में, जब यह कहा जाता है कि 'घटो नास्ति' (घड़ा नहीं है) तो ऐसा लगता है कि यहाँ 'न' 'प्रागभाव' की प्रतीति करा रहा है। परन्तु इन प्रतीतियों को वास्तविक नहीं माना जा सकता क्योंकि सत्य यह है कि इन दोनों ही प्रयोगों में 'अत्यन्ताभाव' का ही द्योतन 'नञ्' से होता है। अत्यन्ताभावो विशेष्यतया तिङन्तार्थक्रियान्वय्येव -- 'प्रसज्यप्रतिषेध' में 'न' के अर्थ की प्रधानता रहती है जबकि 'पर्युदास' में अप्रधानता । 'प्रसज्यप्रतिषेध' के प्रयोग में चाहे वे समास-सहित हों या समास-रहित, 'न' का अर्थ 'अत्यन्ताभाव' ही होता है। यह 'अत्यन्ताभाव' रूप अर्थ 'तिङन्त पद' (क्रिया पद) के अर्थ (क्रिया) में 'विशेष्य' (प्रधान) रूप से अन्वित होता है। यहां के 'तिङन्त पद' को 'कृदन्त' प्रयोगों का भी उपलक्षण माना जाता है, अन्यथा ‘असूर्यम्पश्या-राजदाराः' इत्यादि प्रयोगों, में जहाँ 'नन्', 'तिङन्त पद' से सम्बन्ध न होकर, 'कृदन्त पद ('पश्य') से सम्बन्ध है, 'अत्यन्ताभाव' तथा For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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