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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निपातार्थ-निर्णय २१५ न्याय । इस न्याय की संगति तभी लग सकती है यदि 'पर्युदास 'न' को 'प्रारोपविषयता' का वाचक न मानकर द्योतक माना जाय । र्याद इस भेदरूप अर्थ का न को वाचक माना गया, जैसा कि नैयायिक मानते हैं, तो इस भेदरूप अर्थ की प्रधानता होने के कारण, नञ्तत्पुरुष समास को 'पूर्वपदार्थप्रधान' मानना होगा क्योंकि इस अर्थ का वाचक 'न' समास के पूर्वपद में विद्यमान है । तुलना करो "नञ्समासेऽपरस्य उत्तरपदार्थस्य प्राधान्यात् सर्वनामता सिध्यति । अतएव आरोपितत्वमेव नद्योत्यमित्यभ्युपेयम्" (वैभूसा०, पृ० ३५६) । 'प्रतस्मै ब्राह्मणाय', 'प्रसः शिवः' इत्यादौ सर्वनामकार्यम्-'पर्यु दास नज्' को आरोपविषयता का द्योतक मानने में जो दूसरा हेतु है वह पहले हेतु से ही सम्बद्ध है। यदि 'न' को द्योतक न मान कर वाचक माना गया तो 'नसमास' की 'उत्तरपदार्थप्रधानता' नहीं बनेगी और उस स्थिति में 'अतस्मै ब्राह्मणाय' या 'असः शिवः' जैसे नसमास' के प्रयोगों के उत्तरपद ('तद्') की सर्वनाम संज्ञा नहीं हो सकेगी क्योंकि तब 'तद्' का अर्थ प्रधान न होकर 'न' का अर्थ ही प्रधान होगा । इसका कारण यह है कि 'अतस्मै' का अर्थ है 'तद्भिन्नाय' या इसी प्रकार 'असः' का अर्थ है 'तद्भिन्नः' । इस तरह 'नञ्' का अर्थ प्रधान होने से 'पूर्वपदार्थप्रधानता' तो होगी ही साथ ही, जिस प्रकार 'अतिसर्वः' इत्यादि प्रयोगों में पूर्वपदार्थ की प्रधानता के कारण 'सर्व' शब्द के उपसर्जन या अप्रधान होने से उसकी सर्वनाम संज्ञा नहीं होती उसी प्रकार, उपर्युक्त प्रयोगों में 'तद्' की सर्वनाम संज्ञा भी नहीं होगी । सर्वनाम संज्ञा के अभाव में अतस्मै' में 'डे' को 'स्म' आदेश तथा 'असः' में प्रथमा विभक्ति के 'सु' का लोपाभाव इत्यादि, सर्वनाम को निमित्त मान कर होने वाले, कार्य नहीं हो सकते । इसलिये यही युक्तियुक्त मत है कि 'पर्यु दास नञ्' आरोपविषयता का द्योतक ही है। "पयुंदासः सदृशग्राही" - इति प्रवाव:-यह प्रश्न हो सकता है कि यदि 'पर्युदास 'नञ्' आरोप का द्योतक है तो 'पर्युदासः सदृशग्राही" ('पर्युदास नन्' सदृश का ज्ञान कराता है) इस प्रकार की प्रसिद्धि क्यों है ? इसका उत्तर यह है कि दूसरे वस्तु या व्यक्ति में यदि किसी दूसरी वस्तु या व्यक्ति के 'प्रवृत्तिनिमित्त' या 'धर्म' का आरोप किया जायगा तो किसी न किसी मात्रा में, किसी न किसी रूप में, थोड़ी बहुत सदृशता वहां होगी ही, दोनों सर्वथा एक दूसरे से भिन्न नहीं ही सकते । इसलिये उपयुक्त प्रसिद्धि उचित ही है । पर 'सदृशता' को 'न' का द्योत्य नहीं माना जा सकता क्योंकि यहां सदृशता की प्रतीति बाद में होती है। पर्युदासे निषेधस्तु प्रार्थ:-'पर्युदास' में 'निषेध' अर्थ की प्रतीति होती तो है पर 'पर्युदास नज्' के अपने द्योत्य अर्थ 'आरोप' या 'पारोप-विषयता' का ज्ञान हो जाने के बाद यह प्रतीति होती है क्योंकि 'आरोप' भिन्न व्यक्ति या वस्तु में हुआ करता है, इसलिये 'निषेध' को यहाँ 'प्रार्थ', अर्थात् 'न' के द्योत्य अर्थ 'आरोप' से उत्पन्न, कहा गया है। इसी कारण 'निषेध' अर्थ को 'पर्यु दास नज्' के प्रयोगों में अप्रधान माना गया है । तथा 'आरोप' अर्थ को प्रधान । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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