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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निपातार्थ - निर्णय २११ ओर संकेत किया है। इस सूत्र का अभिप्राय यह है कि, 'शस्त्री श्यामा देवदत्ता (प्रारी के समान काली देवदत्ता ) इत्यादि प्रयोगों में, उपमान-बोधक शस्त्री' इत्यदि शब्द 'साधारण धर्म' से विशिष्ट 'उपमेय' - वाचक 'श्याम' आदि शब्दों के साथ समास को प्राप्त होते हैं । इस सूत्र के भाष्य में पतंजलि ने एक रोचक विवाद प्रस्तुत किया है कि 'शस्त्री श्यामा देवदत्ता' इत्यादि प्रयोगों में 'श्यामत्व' रूप 'साधारण धर्म' की स्थिति 'उपमान' ( शस्त्री ) माना जाय या उपमेय' (देवदत्ता ) ' में ? यदि 'उपमेय' में 'साधारण धर्म' की स्थिति मानी जाय तो 'उपमान' की श्यामता को कौन कहेगा ? और यदि 'उपमान' में उसकी स्थिति मानी जाय तो 'उपमेय' की श्यामता को कौन कहेगा ? " समास की शक्ति से 'उपमेय' -भूत देवदत्ता स्त्री की श्यामता कही जाती है" यह मानते हुए यदि उपमान शस्त्री में 'साधारण धर्म' की स्थिति मानी जाय तो 'शस्त्री श्यामो देवदत्तः' ( श्रारी के समान काला देवदत्त) यहां 'शस्त्री श्याम:' प्रयोग उपपन्न नहीं हो सकता क्योंकि यहां 'श्यामता' रूप 'साधारण धर्म' 'उपमेय' देवदत्त की न होकर 'उपमान' शस्त्री की है । इसलिये समासयुक्त पद के अन्त में स्त्रीलिंग का द्योतक 'टाप्' प्रत्यय माना ही चाहिये । और यदि 'उपमेय' में 'साधारण धर्म' की स्थिति मानी जाती है तो 'साधारण धर्म' और 'उपमान' दोनों की समान अधिकरणता नष्ट हो जाती है— दोनों भिन्न-भिन्न प्राश्रय वाले हो जायेंगे । समान अधिकरणता के अभाव में समास नहीं हो सकता। किसी तरह यदि समास का विधान कर भी लिया गया तो 'मृगचपला' (मृगी के समान चपला ) इस प्रयोग में "पु'वत् कर्मधारय जातीय - देशीयेषु" ( पा० ६.३.४२ ) इस सूत्र से, समानाधिकरणता के आधार पर होने वाला, 'पुंवद्भाव' 'मृगी' में नहीं हो सकता ( द्र० महा० १.२,५५, पृ० १२८ - १२९ ) । अभिप्राय यह है कि 'उपमेय' में 'साधारण धर्मं' तो रहता ही है। साथ ही, 'उपमेय' तथा 'उपमान' की सदृशता के आधार पर दोनों में अभेद का आरोप कर दिये जाने के कारण, 'उपमान' भी 'उपमेय' में ही रहता है तथा 'साधारण धर्म' (श्मामत्व आदि) का अन्वय दोनों 'उपमान' तथा 'उपमेय' में ही होता है, अर्थात् 'शस्त्री श्यामा देवदत्ता' इस प्रयोग से यह बोध होता है कि 'उपमान' भूत जो शस्त्री उसकी श्यामता से अभिन्न, 'उपमेय' भूत देवदत्ता की श्यामता । पतंजलि के इस कथन "तस्याम् एव उभय वर्तते" से यह स्पष्ट है कि उपमान- वाचक 'शस्त्री' या 'चन्द्र' आदि शब्द शस्त्री-सदृश या चन्द्र-सदृश अर्थ के वाचक नहीं हैं और न ही 'इव' इस तात्पर्य का द्योतक है। अपितु ये शब्द उपमानता के वाचक है तथा 'इव' उस 'उपमानता' रूप अर्थ का द्योतक है । द्र० " इव शब्दरच स्वसमभिव्याहृते उपमानत्व द्योतकः । शस्त्रीपदस्य तत्सदृशपरत्वम् इवो द्योतयति इति तु न युक्तम् । द्योत्यार्थे समभिव्याहृत-पदार्थ-विशेषणताया इव स्वभाव - सिद्धत्वात्" ( महा०, उद्योत टीका, २.१.५५, पृ० १३१) । ['पर्युदास नञ्' तथा उसका द्योत्य अर्थ ] 'नञ्' द्विविधः पर्युदासः प्रसज्य प्रतिषेधश्च । तत्र आरोपविषयत्वं नञ्-पर्युदास-द्योत्यम् । आरोप-विषयत्व' - द्योतकत्वं च ' नञः ' १. हृ० में 'आरोप - विषयत्व द्योतकत्वं च' के स्थान पर 'आरोप विषयत्वं च ' पाठ मिलता है । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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