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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निपातार्थ-निर्णय २०६ के वाच्यार्थ भूत 'सादृश्य' में 'चन्द्र-पदार्थ' प्रतियोगी (विशेषण) बन गया। और “एकत्र विशेषणं नापरत्र" (एक स्थान पर, अर्थात् 'सादृश्य' में, विशेषण बनकर पुनः वह 'चन्द्रपदार्थ' अन्यत्र, अर्थात् मुख में, विशेषण नहीं बन सकता) इस नियम से 'चन्द्र' तथा 'मुख' में विशेष्य विशेषणभाव न बन सकने से दोनों में समान-अधिकरणता नहीं होगी। समान-अधिकरणता न होने के कारण 'लकार' ('दृश्यते') के द्वारा 'चन्द्र' शब्द 'अभिहित' नहीं हो सकेगा। इसलिये प्रथम प्रयोग में 'अनभिहित' होने के कारण 'चन्द्र' में प्रथमा विभक्ति नहीं प्रयुक्त हो सकेगी क्योंकि अभिहित 'कर्ता' में ही प्रथमा विभक्ति होती है। इसी प्रकार दूसरे प्रयोग में, 'मुख' तथा 'चन्द्र' की समान-अधिकरणता न होने से, लकार ('पश्यामि') के द्वारा 'चन्द्र' के अनभिहित न होने के कारण द्वितीया विभक्ति नहीं हो सकती क्योंकि 'अनभिहित' कर्म में ही द्वितीया विभक्ति होती है। इसके अतिरिक्त, 'इव' के अर्थ 'सादृश्य' का 'प्रतियोगी' (विशेषण) होने तथा इस रूप में 'चन्द्र' तथा 'इव' में भेदसम्बन्ध के होने के कारण, 'चन्द्र' के साथ षष्ठी विभक्ति का प्रयोग करना पड़ेगा क्योंकि दो नामार्थों में भेद सम्बन्ध के प्रतिपादन के लिये विभिन्न विभक्ति का प्राश्रयण करना ही पड़ता है.-"नामार्थयोर्भेदेन साक्षाद् अन्वयबोधोऽव्युत्पन्नः” । अतः यहां 'राज्ञः पुरुषः' के समान विशेषणभूत 'चन्द्र' शब्द के साथ षष्ठी विभक्ति ही आनी चाहिये । कौण्डभट्ट ने इसी प्रकार के दोष, 'इव' की सादृश्यार्थ-वाचकता की दृष्टि से, 'शरैः इव उस्र:' इत्यादि प्रयोगों में दिखाये हैं (द्र०-वैभूसा०, पृ० ३८०-८३) । ['इव' के द्योत्य अर्थ के विषय में नागेश का मत ] परे तु 'इव' शब्दस्य उपमानता-द्योतकत्वम् । उपमानत्वं च उपमानोपमेयोभय-निष्ठ-साधारण-धर्मवत्त्वेन ईषद् इतर-परिच्छेदकत्वम् । तद्-धर्मवत्तया परिच्छेद्यत्वं च उपमेयत्वम । साधारण-धर्म-सम्बन्धश्च क्वचिद् विशेषणतया अन्वेति क्वचिद् विशेष्यतया। एवं 'चन्द्र इव आह्लादक' 'मुखम्' इत्यादौ 'ग्राहलादकोपमानभूतचन्द्राभिन्नम् ग्राह्लादकं मुखम्' इति बोधः । 'चन्द्र इव मुखम् ग्राह्लादयति' इत्यादौ च 'उपमान-भूत-चन्द्रकर्तृक- ग्राह्लादाभिन्नो मुखकर्तृकालादः' इति बोधः । इदम् "उपमानानि सामान्यवचनैः” (पा० २.१.५५) इत्यत्र भाष्ये स्पष्टम् । पलम० के प्रकाशित संस्करणों में यहां विपरीत क्रम मिलता है :-'क्वचिद् विशेष्यतया अन्वेति क्वचिद् विशेषणतया'। परन्तु बाद के उदाहरणों के क्रम को देखते हुए ऊपर का पाठ ही ठीक प्रतीत होता है। हस्तलेखों में भी उपरिनिर्दिष्ट क्रम ही उपलब्ध है। ह. में यह पद अनुपलब्ध है । २. For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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