SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ www.kobatirth.org Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निपातार्थ-निर्णय २०७ जा रहा है कि 'इव निपात' के प्रयोग से जिस सादृश्य अर्थ की प्रतीति होती है वह 'इव' का द्योत्य अर्थ है या वाच्य अर्थ है। नैयायिक सादृश्य को 'इव' का वाच्य अर्थ मानते हैं । परन्तु कौण्डभट्ट आदि वैयाकरण ऐसा नहीं मानते। 'चन्द्र इव मुखम्' इत्यादि प्रयोगों में चन्द्र-सदृश' अर्थ का वाचक स्वयं 'चन्द्र' शब्द ही है, 'इव' निपात तो केवल इस बात का द्योतक है कि इस प्रयोग में 'चन्द्र' शब्द केवल चन्द्र अर्थ को ही प्रस्तुत नहीं करता अपितु 'चन्द्रसदृश' अर्थ को भी 'लक्षणा' के द्वारा उपस्थित करता है । वैयाकरण 'लक्षणा' वृत्ति को नहीं मानते, उसे (शक्ति अथवा अभिधा का ही एक रूप) अप्रसिद्धा शक्ति मानते हैं, इसलिये यहां भी यह कहा गया कि 'चन्द्र' पद की 'चन्द्रसदृश' अर्थ में अप्रसिद्धा शक्ति रूप 'लक्षणा' है। यह विचार कोण्डभट्ट ने वैयाकरणभूषणसार में व्यक्त किया है। इस मत के प्रतिपादन तथा समर्थन के लिये “नञ् इव युक्तम्" इस परिभाषा को प्रमाण के रूप में यहाँ उपस्थित किया जा रहा है। "नञ्-इव-युक्तम्" ..गति:- महाभाष्यकार पतंजलि ने "भृशादिभ्यो भुव्यच्वेलॊपश्च हल:' (पा. ३.१.१२) सूत्र के भाष्य में, 'अच्चि' शब्द के विषय में विचार करते हुए, कात्यायन की “नञ्-इव-युक्तम् अन्य-सदृशाधिकरणे तथा ह्यर्थगतिः” इस वार्तिक को प्रस्तुत किया है। इसका अभिप्राय यह है कि जब 'न' या 'इव' 'निपात' से युक्त किसी शब्द का प्रयोग होता है तो उस शब्द के अर्थ से भिन्न, परन्तु उसके सदृश, अर्थ में कार्य होता है क्योंकि इन 'निपातों' से युक्त शब्द के द्वारा ऐसा ही अर्थ-बोध होता है। उदाहरण के लिये जब यह कहा जाता है कि 'अब्राह्मणम् प्रानय' (अब्राह्मण को लायो) तो ब्राह्मण सदृश, किसी क्षत्रिय आदि चेतन आदमी, को ही लाया जाता है अचेतन ढेले या पत्थर आदि को नहीं। कात्यायन की इस वार्तिक तथा पतंजलि के द्वारा की गई उसकी व्याख्या से स्पष्ट है कि 'न' के समीप में विद्यमान शब्द तथा 'इव' के समीप में विद्यमान शब्द अपने से भिन्न परन्तु अपने सदृश अर्थ का बोधक होता है । अतः 'न' तथा 'इव' 'निपातों' को उस समीपस्थ शब्द में विद्यमान, सदृशविशिष्ट अर्थ को कहने वाली, अप्रसिद्ध 'अभिधा' शक्ति अथवा, नैयायिकों के शब्दों में, 'लक्षणा' का द्योतक मानना चाहिये । इसलिये 'इव' को सदृश अर्थ का द्योतक सिद्ध करने के लिये कात्यायन की इस वातिक का, जिसने बाद में एक न्याय का रूप धारण कर लिया (द्र०-परिभाषेन्दुशेखर, परि० सं० ७५), यहाँ उल्लेख किया गया। ____ 'इव' पदम् 'योतकत्वम - ‘चन्द्र इव मुखम्' इत्यादि प्रयोगों में 'चन्द्र' शब्द ही 'चन्द्र-सदृश' अर्थ का बोधक है इसलिये 'इव' को 'चन्द्र' शब्द के इस विशिष्ट तात्पर्य का ग्राहक या द्योतक माना जाता है । 'तात्पर्यग्राहकता' तथा 'द्योतकता' लगभग पर्यायवाचक शब्द हैं । 'तात्पर्यग्राहकता' की परिभाषा में 'स्व' पद से यहां 'इव' आदि 'निपात' अभिप्रेत हैं । अभिप्राय यह है कि ये 'निपात' इस बात का द्योतन करते हैं कि उनके साथ अव्यवहित पूर्व में उच्चरित जो पद है वह अपने सामान्य अर्थ से भिन्न परन्तु उसके सदृश अर्थ को अप्रसिद्ध 'अभिधा' शक्ति से कहता है। यही इन 'निपातों' की 'तात्पर्य ग्राहकतां' (समीपस्थ शब्द के तात्पर्य का ज्ञान कराना) है। जैसे'चन्द्र इव मुखम्' इस प्रयोग में 'इव' निपात, अपने से अव्यवहित समीप में विद्यमान 'चन्द्र' शब्द का चन्द्रसदृश' अर्थ है इस, तात्पर्य का ग्राहक है। For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy