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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०४ वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मजूषा अस्यार्थः-यथा भावि-साधन-सम्बन्धाश्रयणेन क्रियावाचित्वम् आश्रित्य धातुसंज्ञा उच्यते', यथा च सन्प्रत्यये चिकीषिते भावि इषिकर्मत्वम् आश्रित्य उपक्रमे एव इषिकर्मत्वम् उक्तम् तथा भाव्युपसर्गसम्बन्धाद् उपक्रमे एव विशिष्टक्रियावाचकत्वं दृश्यताम् । धातूपसर्गयोः सम्बन्धं बुद्धिविषयी-कृत्य उपसर्गार्थकृतो विशेषो धातुनव अभ्यन्तरीकृतः पदप्रयोग-काले' उपसर्गसम्बन्धे सति प्रकाशते । 'श्रोतुः' इति शेषः । उपसर्ग-योगात् प्रागेव धातुनैव उपसर्थ विशिष्ट: स्वार्थ उच्यते इति तात्पर्यम् । "पूर्वं धातुरुपसर्गेण०" इति तु तदर्थस्य धात्वर्थान्तर्भावाद् व्यवहारः । भर्तृहरि ने भी कहा है "जिस प्रकार भविष्य में होने वाले कारक-सम्बन्ध के आधार पर 'धातु' की 'धातु' संज्ञा तथा ('सन्' प्रत्यय की विवक्षा से भविष्य में होने वाली ‘इच्छ, धातु' को कर्मता के अाधार पर 'धातु' की), 'कर्म' संज्ञा मान ली जाती है उसी प्रकार और भी (बाद में होने वाले 'उपसर्ग के सम्बन्ध से प्रारम्भ में ही 'धातु' की विशिष्ट क्रिया-वाचकता) मान लेना चाहिये ।" "और 'धातु' तथा 'उपसर्ग के बौद्धिक अभिसम्बन्ध से ('धातु' के द्वारा) अपने अन्तर्गत किया हुआ विशिष्ट अर्थ ('उपसर्ग' शब्द से युक्त 'धातु' रूप) पद(के प्रयोग) के समय (श्रोता को) ज्ञात होता है।" - इसका अर्थ है-जिस प्रकार बाद में होने वाले कारक-सम्बन्ध के ग्राश्रय से ( 'कृ' आदि की) क्रियावाचकता के आधार पर (उनकी) 'धातु' संज्ञा मानी जाती है और जिस प्रकार ('धातु' के साथ) 'सन्' प्रत्यय को (संयुक्त) करने की इच्छा होने पर, भावी 'इच्छ' ('धातु') की 'कर्मता' का प्राश्रयण करके, प्रारम्भ में ही ('क' आदि 'धातु' को) 'इच्छ' ('धातु' का) कर्म ("धातोः कर्मणः समानकर्तकाद् इच्छायां वा", पा० ३.१.७ इस सूत्र में) कह दिया गया, उसी प्रकार बाद में होने वाले 'उपसर्ग' के सम्बन्ध से प्रारम्भ में ही ('उपसर्ग' के द्वारा बाद में द्योत्य होने वाले अर्थ से) विशिष्ट क्रिया को वाचकता ('धातु' में) जाननी चाहिये । १. ह. में 'धातुसंजोच्यते' अनुपलब्ध । २. ह०-पदकाले प्रयोगकाले । ३. ह०-विशिष्टस्वार्थ । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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