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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निपातार्थ-निर्णय २०१ शाकटायन 'उपसर्गों' को अर्थ का द्योतक मानते थे-"न निबंद्धा उपसर्गा अर्थान् निराहुरिति शाकटायनः नामाख्यातयोस्तु कर्मोपसंयोगद्योतका भवन्ति' (उपसर्ग स्वतंत्र रूप से अर्थों को, अपने वाच्यार्थ के रूप में नहीं कहते अपितु 'प्रातिपदिकों' तथा 'धातुओं' के विशिष्ट अर्थों के संयोग के द्योतक होते हैं)। दूसरी ओर नरुक्त विद्वान् गाग्यं का मत है कि 'उपसर्ग' अर्थों के वाचक होते हैं- "उच्चावचाः पदार्था भवन्ति इति गायः" । वस्तुतः वेद-मंत्रों में ऐसे अनेक स्थल मिल जाते हैं जहाँ स्वतंत्र रूप से 'उपसर्ग' अर्थो के वाचक दिखाई देते हैं। बाद की भाषा में 'उपसर्गो' का स्वतंत्र रूप से अर्थाभिधान-सामर्थ्य प्राय: नहीं दिखाई देता। इसलिये पतंजलि तथा भर्तृहरि इत्यादि, पाणिनीय-व्याकरण के मूर्धाभिषिक्त विद्वान्, 'उपसर्गो' की अर्थद्योतकता-पक्ष के ही प्रबल समर्थक हैं । 'प्रतिष्ठते' इत्यत्र ... द्योतकः-- 'निपातों' की द्योतकता की सिद्धि के पश्चात् 'उपसर्गों' की द्योतकता के प्रबल प्रतिपादन के लिये नागेश ने यह प्रसंग प्रारम्भ किया है । 'प्रतिष्ठते' का उदाहरण इस चर्चा का उपक्रम है। 'स्था' 'धातु' का अर्थ पाणिनीय धातुपाठ में 'गति-निवृत्ति' अथवा 'गति रहितता' माना गया है । इसीलिये तिष्ठति' का अर्थ 'गतिरहित हो कर ठहरना' है । परन्तु 'प्रतिष्ठते' का अर्थ 'प्रस्थान करना'-गति, गमन अथवा यात्रा का प्रारम्भ करना-है। इन 'तिष्ठति' तथा 'प्रतिष्ठते' के अर्थों में स्पष्टत: पर्याप्त अन्तर है। इसलिये अन्वय-व्यतिरेक के आधार पर यह कहा जा सकता है कि 'प्रतिष्ठते' में 'गमन' अर्थ 'प्र' 'उपसर्ग' का ही है। महाभाष्यकार पतंजलि ने इस अन्वय-व्यतिरेक की बात को निम्न शब्दों में प्रकट किया है :--' इह तहि व्यक्तम् अर्थान्तरं गम्यते 'तिष्ठति' 'प्रतिष्ठते' इति । 'तिष्ठति' इति वजि-क्रियायाः निवृत्तिः । 'प्रतिष्ठते' इति वजि-क्रिया गम्यते । ते मन्यामहे उपसर्गकृतम् एतद् येन अत्र जि-क्रिया गम्यते” (महा० १. ३. १.) ।। परन्तु पतंजलि ने स्वयं ही इस प्रसंग में आगे चलकर स्थिति को स्पष्ट कर दिया है । वस्तुतः 'धातुएं' अनेक अर्थ वाली होती हैं : – 'धातुओं' के जिन अर्थों का निर्देश धातुपाठ में मिलता है वह केवल उपलक्षण के रूप में प्रधान या प्रसिद्ध अर्थो का ही निर्देश समझना चाहिये । अर्थ-निर्देश करने वाले प्राचार्य ने इस प्रवृत्ति का ज्ञापन स्वयं धातु पाठ में ही कर दिया है जिसके प्रमाण ऊपर दिये जा चुके हैं। 'धातुओं' की इस अनेकार्थकता के सिद्धान्त के कारण ही, 'धातुनों' से किसी भी रूप में प्रकट होने वाले अर्थों को 'धातुओं' का ही वाच्यार्थ मान लिया गया। इसलिये 'प्र' के संयोग से 'स्था धातु' के द्वारा जो अर्थ प्रकट होता है वह 'स्था धातु' का ही है 'प्र' तो उसका द्योतन मात्र करता है । 'उपसर्गों' की द्योतकता का यह सबसे बड़ा हेतु है । यदि अन्वय व्यतिरेक के आधार पर 'प्र' स्वयं 'गति' अर्थ को कह सकता है तो वह पृथक् स्वतंत्र रूप में उस अर्थ को क्यों नहीं कहता । पतंजलि के निम्न शब्दों में यही आशय सन्निहित है : "बह वर्था अपि धातवो भवन्ति इति । तद्यथा 'वपिः' प्रकिरणे दृष्ट: छेदने चापि वर्तते- 'केशश्मश्रु वपति' इति । 'ईडि:' स्तुतिचोदनायाञ्चासु दृष्टः, प्रेरणे चापि वर्तते 'अग्निर्वा इतो वृष्टिम् ईट्ट मरुतोऽमुतश्च्यावयन्ति' । ...एवम् इहापि तिष्ठतिरेव प्रतिक्रियाम् अाह तिष्ठतिरेव वजिक्रियाया निवृत्तिम्” (महा० १.३.१) For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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