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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धात्वर्थ - निर्णय १८१ तस्माद् 'धावति मृगः' इत्यत्र उभयोः कर्मत्वे 'धावति' इत्यस्य प्रातिपदिकत्वाभावाद विशेषणत्वेन अन्यत्र निराकांक्षत्वाच्च द्वितीयोत्पत्त्यभावेऽपि 'मृग'शब्दाद् द्वितीया दुर्वारा एव इत्यवेहि । शाब्दिक मते तू क्रिया-विशेषणत्वेन इतरार्थे निराकांक्षत्वाद् 'मृग' - शब्दान्न द्वितीया । तार्किक मते तू विशेष्यार्थवाचकत्वाद्' 'मृग’- शब्दाद, 'राज्ञः पुरुषम् श्रानय' इतिवद्, द्वितीया दुर्वारा । इत्यलमतिविस्तरेण । इति धात्वर्थ - निर्णयः यदि यह कहा जाय कि - - विशिष्ट अर्थ के वाचक धावति मृगः' (मृग दौड़ता है) इस वाक्य के 'कर्म' होने पर भी 'मृग:' इस प्रातिपदिक की पृथक् 'कर्म' संज्ञा न होने के काररण उससे द्वितीया विभक्ति नहीं होगी तो वह उचित नहीं है क्योंकि "अनभिहिते" इस अधिकार सूत्र के प्रकरण में "अभिधानं च तिङ कृत्तद्धित - समासैः " ( और अभिधान तिङ, कृत्, तद्धित तथा समास के द्वारा मान्य है) इस परिगणन (वार्तिक) का खण्डन करने वाली भाष्य-शैली से द्वितीया विभक्ति की प्राप्ति होती है । 'कटं भीष्मं कुरु' ( बहुत बड़ी चटाई बनाओ ) इत्यादि प्रयोगों में 'कट' शब्द से उत्पन्न द्वितीया (विभक्ति) के द्वारा 'कर्मत्व' के कह दिये जाने के कारण विशेषरणीभूत 'भीष्म' शब्द से द्वितीया विभक्ति नहीं प्राप्त होगी । इस दृष्टि से भाष्य में (पूर्वोक्त) परिगणन किया गया और उस (परिगणन) का खण्डन, सभी कारकों का सीधे अथवा अपने आश्रय ( कर्ता, कर्म) के द्वारा, ( मीमांसा के ) अरुणाधिकरण' न्याय से, 'भावना' (क्रिया) में अन्वय मान कर (भाष्य में) किया गया । इसीलिये भाष्य (i) यह कहा गया कि - "कटोऽपि कर्म' भीष्मादयोऽपि " ( कट भी 'कर्म' है तथा भीष्म आदि भी ) । उनमें ( 'कट' शब्द से उत्पन्न द्वितीया के द्वारा), 'कट' में रहने वाली 'कर्मता' के कह दिये जाने पर भी, भीष्मत्व प्रादि गुणों से विशिष्ट 'कर्मता' के कथित न होने के कारण, उस ('भीष्म' शब्द) से द्वितीया होगी यह (भाष्य-वचन) का अभिप्राय है । (द्वितीया विभक्ति के आ जाने के ) बाद में (इन) दोनों ('कट' तथा 'भीष्म') का विशेष्य-विशेषण-भाव के रूप में अन्वय होता है । यही अन्वय 'पाणिक' ( बाद का ) कहा जाता है । इसी प्रकार का अन्वय, 'अरुणाधिकरण' ( मीमांसा सू० ३.१.६.१२ ) में "अरुणया पिङ्गाक्ष्या एकहायन्या सोमं क्रीणाति" (लाल वर्ण वाली, पीली १. ह०, बंमि० -वाचकात् । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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