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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धात्वर्थ-निर्णय धावति' इत्यापत्तेः । ग्र' प्रथमासमानाधिकरणे शतृशानचोर्नित्यत्वादेवं प्रयोगविलयापत्तश्च । १७६ नैयायिकों के मत में ('पश्य मृगो धावति' इस वाक्य का ) " अन्य देश के संयोग (रूप 'फल') के अनुकूल (जो ) 'धावन' (रूप 'व्यापार' उसके ) अनुकूल 'यत्न' वाला 'मृग' है 'कर्म' जिसमें ऐसा, प्र ेरणा का विषयीभूत जो, ‘दर्शन' (रूप 'व्यापार') उसके अनुकूल 'यत्न' वाले तुम" यह शाब्दबोध होगा । उस (शाब्दबोध) में प्रधानभूत अर्थ के वाचक 'मृग' शब्द की 'प्रातिपदिक' संज्ञा होने तथा 'दर्शन' क्रिया के 'कर्म' होने के कारण, द्वितीया विभक्ति की उपस्थिति होने पर, 'धावन्तं मृगं पश्य' ( दौड़ते हुए मृग को देखो ) के समान, 'पश्य मृगं धावति' इस (प्रशुद्ध प्रयोग ) को (साधु) मानना होगा तथा, प्रथमा विभक्ति से भिन्न विभक्ति के साथ समानाधिकरणता होने पर 'शतृ' तथा 'शानच्' प्रत्ययों के नित्य रूप से विहित होने के कारण, (पश्य मृगो धावति' ) इस प्रकार के प्रयोग सर्वथा नष्ट हो जायेंगे । नैयायिक प्रथमाविभक्त्यन्त पद के अर्थ को वाक्यार्थ में सर्वाधिक प्रधानता देता है | अतः पश्य मृगो धावति' इस वाक्य के ' ( त्वम्) पश्य' अश में तो 'त्वम्' की प्रधानता होगी क्योंकि नैयायिक के अनुसार " देखना रूप जो 'व्यापार' उसके अनुकूल जो 'यत्न' उसके श्राश्रय तुम" इस प्रकार यहाँ शाब्दबोध होगा । यहाँ जो 'त्वम्' है वह 'पश्य' का कर्ता है | इस 'पश्य' क्रिया का 'कर्म' है 'मृगो धावति' । इस 'मृगो धावति' का शाब्दबोध नैयायिक के अनुसार होगा - " अन्य स्थान से संयोग रूप जो 'फल' उसके अनुकूल जो 'यत्न' उसक श्राश्रय मृग" । नैयायिक के मत में इस प्रकार का अन्वय इसलिये होगा कि वह प्रथमान्त पद के अर्थ के प्रति 'तिङ्' के अर्थ 'कृति' को विशेषण मानता है। तथा 'कृति' ('यत्न' ) के प्रति धात्वर्थ को 'विशेषरण' मानता है । इस प्रक्रिया को ऊपर, नैयायिक मत के प्रतिपादन के अवसर पर विस्तार से प्रदर्शित किया गया है। इस प्रकार नैयायिक अभिमत शाब्दबोध में 'धावति' की प्रधानता न हो कर 'मृग' की प्रधानता है क्योंकि वह प्रथमान्त है । इसलिये 'पश्य' क्रिया के 'कर्म' होने तथा प्रधान होने के कारण, 'कर्मरिण द्वितीया' (पा० १.३.२ ) के अनुसार, 'मृग' पद के साथ द्वितीया विभक्ति का प्रयोग करना होगा । वैयाकरण इस आपत्ति से इसलिये बच जाता है कि उसके सिद्धान्त के अनुसार शाब्दबोध में 'मृग' की प्रधानता न होकर 'धावति' की प्रधानता है । और 'धावति' पद 'प्रातिपदिक' न होकर क्रिया पद है । इसलिये 'प्रातिपदिक' संज्ञा के आभाव में द्वितीया विभक्ति का निवारण स्वतः हो जाता है । नैयायिक के मत में प्रथमान्त 'मृग' की 'प्रातिपदिक' संज्ञा है इसलिये वह इस आपत्ति से नहीं बच पाता । For Private and Personal Use Only इस कारण उक्त प्रयोग में 'मृगः धावति' के स्थान पर 'मृगं धावति' प्रयोग नैयायिक को स्वीकार करना पड़ेगा। इस स्थिति में एक और आपत्ति यह उपस्थित ह० तथा वंमि० में इससे पहले 'किच' अधिक । १.
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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