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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धात्वर्थ-निर्णय १७५ इसलिये यास्क आदि के इस कथनरूप विशेष नियम के कारण तिङन्त पदों में क्रिया की प्रधानता, या दूसरे शब्दों में धात्वर्थ की ही प्रधानता, माननी चाहिये न कि 'तिङ' के अर्थ की। यत्त 'पाख्यात'-पदेन .... फलति इति--नैयायिक 'पाख्यात' शब्द का प्रयोग 'तिङ्' विभक्तियों के लिये करते हैं। इसलिये यहां, यास्क के वचन में, भी 'पाख्यात' का अर्थ 'तिङ्' मान कर तथा 'भावप्रधानम्' इस पद में, बहुव्रीहि समास के स्थान पर, षष्ठीतत्पुरुष समास मान कर, नैयायिकों की दृष्टि से यास्क के इस कथन को तिर्थ की प्रधानता का प्रतिपादक सिद्ध करने का प्रयास, पूर्वपक्ष के रूप में, किया गया है । षष्ठीतत्पुरुष समास मानने तथा 'पाख्यात' का अर्थ 'तिङ् मानने पर 'भावप्रधानम्' शब्द का अर्थ होगा 'भाव' अर्थात् क्रिया से निरूपित प्रधानता । 'भावस्य' पद में विद्यमान षष्ठी विभक्ति का अर्थ 'निरूपितत्व' या 'द्योतितत्व' किया गया। इस रूप में "भावप्रधानम् आख्यातम्' का अभिप्राय यह है कि 'पाख्यात' ('तिङ्' प्रत्यय) ऐसे हैं जिनकी प्रधानता का द्योतन क्रियायें, जिन्हें 'भाव' कहा जाता है तथा जो धातु के अर्थ हैं, करती हैं। दूसरे शब्दों में 'तिङ' के अर्थ प्रधान या 'विशेष्य होते हैं, तथा धात्वर्थ (क्रिया) उनके 'विशेषण' होते हैं । तन्न''इत्यलम्-परन्तु यास्क की उपर्युक्त पंक्ति का इस प्रकार मनमानी विग्रह तथा उसके अर्थ के विषय में खेंचातानी करके नैयायिक-अभिमत अर्थ नहीं निकाला जा सकता और नहीं वह अर्थ यास्क को कथमपि अभिप्रेत माना जा सकता है। यहां पहली बात तो यह है कि 'अख्यात' पद का अभिप्राय वैयाकरणों तथा नरुक्तों की दृष्टि में 'तिङन्त' पद ही होता है, केवल 'तिङ' प्रत्यय नहीं। इसका स्पष्ट प्रमाण यह है कि यास्क ने निरुक्त के प्रारम्भ में पदों का चार विभाग करते हुए 'नाम' 'आख्यात', 'उपसर्ग' तथा निपात' का नाम लिया है-"चत्वारि पदजातानि, नामाख्यातोपसर्गनिपाताश्च" । यहाँ कोई भी यह नहीं कह सकता कि 'पाख्यात' पद केवल 'तिङ' विभक्तियों का वाचक है, क्योंकि केवल 'तिङ' प्रत्यय किसी शब्द को नहीं बनाते। हाँ धातु के साथ संयुक्त होकर 'तिङ्' विभक्तियाँ अवश्य क्रिया पदों को बनाती है। ये क्रिया पद ही यास्क को 'पाख्यात' पद द्वारा अभिप्रेत हैं। इसके अतिरिक्त भावप्रधानम्' पद में बहुब्रीहि के स्थान पर षष्ठीतत्पुरुष समास इसलिये नहीं माना जा सकता कि यदि षष्ठीतत्पुरुष के द्वारा नैयायिकअभिमत अर्थ का ही कथन करना यास्क को अभीष्ट होता तो वह बात तो सामान्य नियम-"प्रकृत्यर्थ-प्रत्ययार्थयोः सहार्थत्वे प्रत्ययार्थस्यैव प्राधान्यम्”-से ही सिद्ध थी। विशेष नियम के रूप में ही "भावप्रधानम् आख्यातम्" इस वाक्य को कहने की आवश्यकता हो सकती है। तिङ्न्त पदों के स्वरूप को बताते हुए यास्क ने जो यह विशेष बात कही उससे ही उनकी इस प्रवृत्ति का ज्ञापन हो जाता है कि न तो 'भावप्रधानम्' पद में षष्ठी तत्पुरुष समास है और न नैयायिक अभिमत अर्थ ही उन्हें अभीष्ट है । ऊपर महाभाष्य से पतंजलि की जो पंक्तियाँ उद्धृत की गयीं उनसे भी यास्क का यही आशय स्पष्ट होता है। इसलिये 'भावप्रधानम्' पद की नैयायिक-अभिमत व्याख्या स्वीकार्य नहीं हो सकती। For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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