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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १६८ वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा 'शत' आदि (प्रत्ययों) के वाच्य-अर्थ का निर्णय "कर्तरि कृत्' (इस सूत्र) के द्वारा नहीं किया जा सकता। अन्यथा (यदि "कर्तरि कृत्" इस सूत्र से इन प्रत्ययों के वाच्यार्थ का निर्णय किया गया तो) 'देवदत्तेन शय्यमाने प्रास्यमाने च यज्ञदत्तो गतः' (देवदत्त के सोये जाने तथा बैठे जाने पर यज्ञदत्त गया) इत्यादि (प्रयोगों) में 'भाव' को कहने के लिये 'शानच्' प्रत्यय का प्रयोग नहीं हो सकेगा। नैयायिक के मत में 'लकार' का अर्थ कृति मानने से 'शत' प्रत्ययान्त शब्दों में उपस्थित होने वाले जिस दोष का ऊपर प्रदर्शन किया गया उसके निराकरण के लिये, नैयायिकों की दृष्टि से पूर्वपक्ष के रूप में, एक और उपाय प्रस्तुत किया गया। वह यह कि “लः कर्मणि." तथा "कर्तरि कृत्" इन सूत्रों के अर्थों को बदल दिया जाय । "लः कर्मणि०" इस सूत्र के अर्थ में दिखाई देने वाले 'कतृ' तथा 'कर्म' पदों को प्रधानतः भाव अथवा धर्म (कतत्व और कर्मत्व) का वाचक मानते हुए इस सूत्र का यह अर्थ किया जाय कि कर्तृवाच्य में 'लकार' का अर्थ कर्तृत्व ('कृति') तथा कर्मवाच्य में 'कर्मत्व' ('फल') होता है। इसके विपरीत 'कर्तरि कृत्', सूत्र में विद्यमान 'कर्तृ रि' पद को धर्मिप्रधान माना जाय, अर्थात्' 'कर्तृ' पद, कर्तृत्व का वाचक न होकर, कर्तृत्वरूप धर्म से युक्त धर्मी ('कर्ता') का वाचक है यह माना जाय । इस रूप में सूत्र का यह अर्थ किया जाय कि "कृत्' प्रत्यय कर्ता के वाचक हैं-कर्ता को कहते हैं"। यह "कर्तरि कृत्' सूत्र सभी 'कृत्' प्रत्ययों के वाच्य अर्थ का निर्णय करता है और 'कृत्' प्रत्ययों में 'शतृ' तथा 'शानच्' भी हैं, इसलिये उनके वाच्यार्थ का निर्णय भी “कर्तरि कृत्" सूत्र से ही होगा। ___ इस रूप में एक ओर “कर्तरि कृत्" सूत्र के अनुसार 'शतृ' तथा 'शानच्' प्रत्यय 'कर्ता' या क्रिया के प्राश्रय 'कारकों' को अपना वाच्यार्थ बनायेंगे तो दूसरी ओर, 'ल: कर्मणि." सूत्र की उपर्युक्त व्याख्या के अनुसार, 'लकार' कर्तृवाच्य में 'कृति' को तथा कर्मवाच्य में 'फल' को अपना वाच्यार्थ बनायेंगे । इस प्रकार 'शत' तथा 'शानच्' प्रत्ययान्त शब्दों में दिखाई गयी पूर्वोक्त अव्यवस्था का समाधान हो जाता है । परन्तु पूर्वपक्षी का यह प्रयास प्राधार-रहित होने के कारण अस्वीकार्य है क्योंकि “कर्तरि कृत्" सूत्र में जो 'कर्तरि' पद विद्यमान है उसी का “लः कर्मणि च भावे." सूत्र में 'च' के द्वारा अनुकर्षण किया जाता है। इसलिये, “ल: कर्मणि" सूत्र में एक ही 'कर्तृ' पद को भावप्रधान मानना तथा उसी को “कर्तरि कृत्" सूत्र में धर्मिप्रधान कहना सर्वथा अव्यवस्थित व्याख्या है जिसे किसी प्रकार भी नहीं माना जा सकता। ___ इसके अतिरिक्त यदि इस व्याख्या को मान भी लिया जाय तो अगला प्रश्न यह है कि क्या "कर्तरि कृत्" सूत्र ‘शतृ' 'शानच्' प्रत्ययों के वाच्य-अर्थ का निर्णय कर सकता है। यहाँ दो बाते सोचने की हैं । पहली यह कि जो 'लकार' का अर्थ है वही अर्थ, उनके 'स्थान' पर आने वाले, 'आदेश' का भी मानना होगा-चाहे वह कोई भी 'आदेश' क्यों न हो । अन्यथा उस 'आदेश' की आदेशता ही समाप्त हो जायगी। उस 'आदेश' को, जो 'स्थानी' के अर्थ को नहीं कहता, 'स्थानी' के स्थान पर आने ही नहीं दिया For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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