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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धात्वर्थ-निर्णय १३३ 'शक्ति' मानते थे। नागेशभट्ट 'वाच्यवाचकभाव' सम्बन्ध को 'शक्ति' मानते हैं इसीलिए, प्राचीनों की दृष्टि से ही उन्होंने यह चौथी आपत्ति प्रस्तुत की है। तस्मात्फलावच्छिन्ने...."नियामक इत्याहुः-इसीलिए धातु की 'फल'-विशिष्ट'व्यापार' तथा 'व्यापार'-विशिष्ट 'फल' में 'शक्ति' माननी चाहिये । 'फल'-विशिष्ट'व्यापार' का अभिप्राय है फलानुकूल अथवा फलोत्पादक 'व्यापार' तथा 'व्यापार'विशिष्ट-'फल' का अभिप्राय है कि 'व्यापार'-जन्य 'फल'। कर्तृवाच्य के प्रयोगों में फलानुकूल 'व्यापार' की प्रतीति होती है तथा कर्मवाच्य में 'व्यापार'-जन्य 'फल' की प्रतीति होती है। कर्तृवाच्य के प्रयोगों में कर्तृवाचक प्रत्यय इस बात का नियमन अथवा तात्पर्य ज्ञापन करेगा कि यहां धातु फलानुकूल 'व्यापार' का बोधक है तथा तथा कर्मवाच्य के प्रयोगों में कर्मवाचक प्रत्यय इस बात का नियामक होगा कि धातु यहाँ 'व्यापार'-जन्य 'फल' का बोधक है। ऐसा मानने में ऊपर दिखाये गये दोष नहीं उपस्थित होते। [मीमांमकों के मत- "धातु का अर्थ 'फल' है तथा प्रत्यय का अर्थ 'व्यापार' है"---का खण्डन यत्त मीमांसकाः “फलं धात्वर्थो व्यापारः प्रत्ययार्थः" इति वदन्ति । तन्न "लः कर्मणि ०" (पा० ३.४.६६) इत्यादि-सूत्र-विरोधापत्त: । नहि तेन व्यापारस्य प्रत्ययार्थता लभ्यते। किं च 'पचति', 'पक्ष्यति', 'पक्ववान्' इत्यादौ फूत्कारादि-प्रतीतये तत्रानेक-प्रत्ययानां शक्तिकल्पनापेक्षया एकस्य धातोरेव शक्ति-कल्पनोचिता। किञ्च फूत्करादेः प्रत्ययार्थत्वे 'गच्छति' इत्यादौ तत्प्रतीति-कारणाय तद्बोधे 'पचि'-समभिव्याहारस्यापि कारणत्व-कल्पनेऽतिगौरवम् । जो कि मीमांसक (मण्डनमिश्र आदि)-"धातु का अर्थ 'फल' तथा ('तिङ्' पादि) 'प्रत्यय' का अर्थ 'व्यापार"-कहते हैं वह उचित नहीं है क्योंकि (वैसा मानने पर) “ल:कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्यः' इत्यादि सूत्रों (के अर्थों) से विरोध उपस्थित होता है । 'प्रत्यय' का अर्थ 'व्यापार' है यह उस सूत्र से ज्ञात नहीं होता। इसके अतिरिक्त 'पचति' (पकाता है), 'पक्ष्यति' (पकावेगा) 'पक्ववान्' (पकाया) इत्यादि प्रयोगों में फूंकना आदि 'व्यापारों' के ज्ञान के लिये अनेक प्रत्ययों में (वाचकता शक्ति) की कल्पना करने की अपेक्षा (इन सब प्रयोगों में विद्यमान) एक 'धातु' में 'शक्ति' की कल्पना उचित है। तथा फूंकना आदि 'व्यापारों' को 'प्रत्यय' का अर्थ मानने पर ('पचति' आदि के For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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