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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२. वैयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा परन्तु 'योग्यता'-रहित 'वह्निना सिंचति' इत्यादि वाक्यों से जिस अर्थ का ज्ञान होता है उसमें प्रवृत्ति इसलिये नहीं होती कि श्रोता को यह पता लग जाता है कि यह ज्ञान अप्रामाणिक है, अयथार्थ है, केवल बौद्धिक ही है : हरिः प्रप्याह-नागेश ने भर्तृहरि के नाम से जिस “अत्यन्तासत्यपि०" कारिका को उद्ध त किया है वह वाक्यपदीय में नहीं मिलती। परन्तु यह अवश्य है कि इस प्रकार का प्राशय भर्तृहरि की कुछ कारिकाओं से प्रकट होता है। द्र०-- अत्यन्तम् अतथाभूते निमित्ते श्रुत्युपाश्रयात् । दृश्यतेऽलातचक्रादौ वस्त्वाकार-निरूपणा ॥ वाप० (१.१३०) निमित्त (बाह्य वस्तु) के सर्वथा असत्य होने पर भी केवल शब्द-प्रयोग के द्वारा 'अलात-चक्र' आदि में चक्र आदि वस्तुओं के आकार का ज्ञान होता है। इसीलिये 'खपुष्प', 'शशविषाण' इत्यादि शब्दों की प्रातिपदिक' संज्ञा होती है। यदि इन शब्दों से कोई ज्ञान ही न हो- ज्ञान बाधित हो जाय-- तब तो ये शब्द या प्रयोग अर्थ-हीन हो जायेंगे तथा उस स्थिति में इनकी 'प्रातिपदिक' संज्ञा ही नहीं होगी। 'प्रातिपदिक' संज्ञा के अभाव में 'सु'प्रादि विभक्तियां नहीं आयेंगी और इस रूप में ये 'अपद' अथवा असाधु बन जायेंगे तथा इनका प्रयोग नहीं किया जा सकेगा । परन्तु इस तरह 'योग्यता'-रहित शब्दों का पर्याप्त प्रयोग भाषा में होता ही है । इसलिये ऐसे स्थलों में 'अन्वय-बोध' अथवा ज्ञान का प्रभाव नहीं माना जा सकता। इसके अतिरिक्त यदि यह मान लिया जाय कि 'वह्निना सिंचति' जैसे 'योग्यता'रहित प्रयोगों में 'अन्वय-बोध' (बौद्धिक ज्ञान) होता ही नहीं; तो यह बात समझ में नहीं आती कि सुनने वाला, इस वाक्य का प्रयोग करने वाले व्यक्ति की, इस रूप में हंसी क्यों उड़ाता है कि 'भाई जलाने वाली माग से तुम सींचने की बात क्यों कहते हो ?' इस उपहास की संगति तो तभी लग सकती है यदि यह माना जाय कि इस वाक्य से 'अन्वय-बोध' होता है। __यहाँ नैयायिक यह कह सकते हैं कि 'योग्यता'- - रहित वाक्यों या प्रयोगों से अन्वयबोध होता है यह स्वीकार कर लेने पर एक दूसरा प्रश्न यह उपस्थित होता है कि इस प्रकार के वाक्यों को सुनने के उपरान्त ज्ञात विषय में श्रोता की प्रवृत्ति क्यों नहीं होती ? इस प्रश्न का उत्तर यहां यह दिया गया कि ऐसे वाक्यों से श्रोता को ज्ञान तो होता है परन्तु साथ ही उसे यह भी पता लग जाता है कि यह ज्ञान अप्रामाणिक है । वास्तविकता भी यही है कि इस तरह के वाक्यों से होने वाला ज्ञान केवल बौद्धिक ही होता है-बाह्यार्थ से वह शून्य होता है। इसीलिसे ऐसे ज्ञान को योगदर्शन में 'विकल्प' ज्ञान कहा गया है। द्र०-- "शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः” (योगदर्शन १.६) । नैयायिकों के अनुसार यदि इस ज्ञान को, बाधित हो जाने के कारण, ज्ञान ही न माना गया तब तो योगदर्शन का 'विकल्प'-विषयक यह मन्तव्य भी असंगत हो जायगा। इसलिये 'योग्यता' की परिभाषा नैयायिकाभिमत "बाधाऽभाव" इत्यादि न होकर वैयाकरणाभिमत-"परस्परान्वय-प्रयोजक-धर्मवत्त्वम्" ही उचित है । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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