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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्फोट-निरूपण १११ “अनेक ('घट' 'पट', आदि पद रूप) 'व्यक्तियों' से अभिव्यक्त होने वाली 'जाति' ही 'स्फोट' है। इसलिये आठ प्रकार का 'स्फोट' रूप 'शब्द' ही 'वृत्तियों' का आश्रय है। वास्तव में तो 'वाक्य-स्फोट' या (और स्पष्ट शब्दों में) 'वाक्य-जातिस्फोट' ही 'वृत्तियों' का आश्रय है, क्योंकि उससे ही लोक में अर्थ का ज्ञान होता है, इत्यादि बातें पहले कही जा चुकी हैं। इस प्रकार ('स्फोट' के मानने पर) सब सुसङ्गत हो जाता है। यह 'स्फोट'-विषयक विवेचन समाप्त हुआ। जातेर्वाचकत्वम्--व्यावहारिक बुद्धि के सन्तोष अथवा व्याकरण आदि शास्त्रों को प्रक्रिया के निर्वाह के लिये यद्यपि 'स्फोट' के अनेक भेद किये जाते हैं, परन्तु वास्तविक 'स्फोट' या अर्थवाचक शब्द तो 'जाति स्फोट' ही है, जिसमें किसी प्रकार के विभाग के लिये कोई स्थान नहीं है । वस्तुतः 'व्यक्तियों' का पर्यवसान भी जाति में ही होता है। जिस प्रकार अनेक दार्शनिक (मीमांसक आदि) यह मानते हैं कि शब्द से पूरी 'जाति' का बोध होता है अथवा पदार्थो में रहने वाली 'जाति' ही वाच्य है, यह दूसरी बात है कि, 'जाति' 'व्यक्ति' से पृथक् नहीं होती- 'व्यक्ति' में ही 'जाति' समाविष्ट रहा करती है- इसलिये, शब्दों से 'व्यक्ति' का भी बोध हो जाता है। उसी प्रकार यह भी मानना चाहिये कि 'वर्णस्फोट' की दृष्टि से 'वर्णजाति', 'पदस्फोट' की दृष्टि 'पदजाति' तथा 'वाक्यस्फोट' की दृष्टि से 'वाक्यजाति' को ही वास्तविक 'स्फोट' मानना चाहिये। भर्तृहरि आदि वैयाकरण 'जाति' को ही वाचक तथा वाच्य दोनों मानते हैं। शब्द पहले 'वाचक-जाति' को प्रगट करता है फिर उसका अर्थ-जाति के रूप में, अध्यारोप कर लिया जाता है। द्र० स्वा जातिः प्रथमं शब्दैः सर्वेरेवाभिधीयते। ततोऽर्थजातिरूपेषु तदध्यारोपकल्पना ।। (वाप० ३.१.६) सभी शब्दों के द्वारा पहले अपनी (विशेष) 'घटपदत्व' आदि 'जाति' का बोध कराया जाता है। उसके बाद अर्थ रूप घटत्व आदि जातियों में उस 'शब्दजाति' का अध्यारोप कर लिया जाता है। वस्तुतः भर्तृहरि आदि केवल 'जाति' को ही सत्य और ब्रह्म मानते हैं तथा 'व्यक्तियों' को असत्य मानते हैं। इस दृष्टि से वाक्यपदीय की निम्न कारिकायें द्रष्टव्य है : सर्वशक्त्यात्ममूतत्वम् एकस्यैवेति निर्णयः । भावानामात्मभेदस्य कल्पना स्मावथिकाः॥ (वाप० ३.१.२२) For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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