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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्फोट-निरूपण १०७ इन तीन वृत्तियों में 'वैकत' ध्वनियां कारण होती हैं। इनके कारण स्फोट में भेद नहीं आता । यह उस (भर्तृहरि की कारिका) का अर्थ है । वैयाकरणों की दृष्टि में 'स्फोट' या शब्द नित्य, प्रखण्ड, एक एवं अविभाज्य है तथा वह मध्यमा नाद के द्वारा पहले अभिव्यक्त होता है, अर्थात् वाणी की मध्यमा स्थिति के समय सर्वप्रथम उसकी अभिव्यक्ति होती है इस तथ्य का स्पष्टीकरण पहले किया जा चुका है (द०-पूर्व पृ० ६६-६७) । 'प्राकृत' तथा 'वकृत' ध्वनियां-यहां उसी नाद को दो प्रकार की ध्वनियों में विभक्त किया गया है- 'प्राकृत' तथा 'वैकृत'। इनमें 'प्राकृत' वह प्रथम ध्वनि है जिससे 'स्फोट' या शब्द प्रथमतः श्रवणगोचर होता है या अभिव्यक्त होता है। 'प्रकृत्या जातः प्राकृतः' इस विग्रह के अनुसार प्रकृति अर्थात् 'स्फोट' या शब्द की अभिव्यक्ति की दृष्टि से जिस की उत्पत्ति हुई वह 'प्राकृत' ध्वनि है। वक्ता 'स्फोट' की अभिव्यक्ति के लिये 'प्राकृत' ध्वनि को उत्पन्न करता है या दूसरे शब्दों में 'स्फोट' ही 'प्राकृत' ध्वनि के रूप में अभि. व्यक्त होता है। इसलिये 'स्फोट' को 'प्राकृत' ध्वनि का कारण अथवा प्रकृति माना गया है। नागेश ने 'प्रकृति' का अर्थ 'अर्थबोधनेच्छा' किया है । इसका अभिप्राय है अर्थ को बताने के लिये स्फोट की अभिव्यक्ति । 'प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति -'प्रकृतौ भवः प्राकृतः' (प्रारम्भ में होने वाला) भी की जा सकती है। शब्दाभिव्यक्ति में सबसे पहले यही ध्वनि उपस्थित होती है। उसके बाद 'वैकृत' ध्वनि के द्वारा विभिन्न वृत्तियों से युक्त शब्द का श्रवण होता है । वाक्यपदीय की स्वोपज्ञ टीका में 'प्राकृत' ध्वनि उसे कहा गया है, जिसके अभाव में स्फोट' का स्वरूप अनभिव्यक्त होने के कारण परिज्ञात नहीं हो पाता। द्र०-"प्राकृतो नाम येन विना स्फोट-रूपम् अनभिव्यक्तं न परिच्छिद्यते" (चारुदेव संस्करण पृ० ७८) । यहीं 'वैकृत' ध्वनि की परिभाषा में यह कहा गया कि अभिव्यक्ति के उपरान्त जिससे स्फोट निरन्तर अधिक काल तक-जब तक ध्वनि समाप्त नहीं हो जाती तब तक सुनाई देता रहता है वह 'वैकृत' ध्वनि है। द्र०- "वैकृतस्तु येनाभिव्यक्तिं स्फोटरूपं पुनः पुनरविच्छेदेन प्रचिततरं कालम् उपलभ्यते” (वही) । स्वोपज्ञ टीका के व्या ख्याकार वृषभदेव ने 'प्राकृत' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा है कि ध्वनि तथा स्फोट की पृथक् पृथक् उपलब्धि न होने कारण स्फोट को ध्वनि की प्रकृति सा माना जाता है। उस प्रकृतिभूत 'स्फोट' की अभिव्यक्ति में हेतु होने के कारण प्रथम ध्वनि को 'प्राकृत' ध्वनि कहते हैं। 'प्राकृत' ध्वनि के उपरान्त होने वाली ध्वनि 'प्राकृत' ध्वनि से विलक्षण होती है तथा उस ध्वनि में 'स्फोट' के साथ विकारों का सम्बन्ध प्रतीत होता है, इसलिये इस उत्तरकालीन ध्वनि को 'वैकृत' ध्वनि कहा जाता है। द्र०-"ध्वनिस्फोटयोः पृथक्त वेनानुपलम्भात् तं स्फोटं तस्य ध्वने: प्रकृतिम् इव मन्यन्ते । तत्र भव: 'प्राकृतः' । तदुत्तरकालभावी तस्माद् विलक्षण एवोपलभ्यते इति विकारापत्ति रिव स्फोटस्य इति 'वैकृत' उच्यते" (वही)। 'प्राकृत' ध्वनि के बिना 'स्फोट' या 'शब्द' का श्रवण नहीं हो पाता इसलिये उसे एक तरह से 'स्फोट' का ही स्वरूप मान लिया गया है तथा उसमें 'प्राकृत' For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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