SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्फोट-निरूपण को भी स्फोट का व्यंजक माना गया है तथा मध्यमानाद को भी। इन दोनों स्फोटव्यंजकों में क्या अन्तर है ? साथ ही वैखरी नाद को भेरी आदि के नाद के समान जो सर्वथा निरर्थक कहा गया है उसका अभिप्राय भी सर्वथा स्पष्ट नहीं हो पाता। यह भी ध्यान देने योग्य है कि उपर्युक्त कारिका तथा उसकी व्याख्या के रूप में प्रस्तुत किया गया यह गद्यांश दोनों ही लघुमंजूषा में नहीं मिलते । स्फोट के ब्रह्मत्व का प्रतिपादन भी इस रूप में लधुमंजूषा में नही प्राप्त होता। भर्तृहरि की “अनादि-निधनम्" कारिका भी, जिसे यहां उद्धत किया गया है, लघुमंजूषा में 'परा' वाक् के प्रसंग में ही उद्धृत है। अनादि-निधनं ब्रह्म-भर्तृहरि ने अपने वाक्यपदीय के ब्रह्मकाण्ड की इस प्रथम कारिका में वैयाकरणों द्वारा अभिमत शब्द-ब्रह्म का स्वरूप बताया है। वैयाकरणों का ब्रह्म शब्द-तत्त्वात्मक है-अनादि, अनन्त एवं अविनाशी है। यह शब्द रूप ब्रह्म हम सबकी बुद्धि में विद्यमान अनन्त अर्थों, पदार्थों तथा अभिप्रायों, विचारों, कल्पनाओं के रूप में तथा दूसरी ओर स्थूल जगत् के सम्पूर्ण बाह्य पदार्थों, वस्तुओं एवं सृष्टियों के रूप में विवर्तित अथवा आभासित होता है । इसी शब्दब्रह्य से जगत् की सम्पूर्ण प्रक्रिया सम्पन्न होती है । इस कारिका से आगे की अन्य तीन कारिकाओं में भी इसी शब्दब्रह्म के स्वरूप का प्रतिपादन मिलता है, जिनमें यह कहा गया है कि शब्दब्रह्म एक है, परन्तु अपनी अनन्त एवं विभिन्न शक्तियों का आश्रय होने से अनेक सा प्रतीत होता है, शक्तियों से सर्वथा अभिन्न होता हुआ भी भिन्न सा भासित होता है। इस शब्दब्रह्म की प्रमुख शक्ति है, काल शक्ति जिसमें शब्दब्रह्म की अन्य अनन्त शक्तियां समाश्रित हैं। यह काल शक्ति जन्म आदि छ भाव-विकारों का परम अधिष्ठान है, जो पदार्थमात्र अथवा चेष्टा या व्यापारमात्र में परस्पर भेद उत्पन्न किया करते हैं। यह शब्दब्रह्म ही सबका मूल कारण है तथा वही भोक्ता, भोक्तव्य एवं भोग सब कुछ स्वयं बना हुआ है-इत्यादि । यों तो पूरा प्रथम काण्ड ही शब्दब्रह्म के स्वरूप का प्रतिपादक है तथा उसकी विभिन्न विशेषताओं को स्पष्ट करता है, जिसके कारण इस काण्ड को ब्रह्मकाण्ड कहा जाता है, परन्तु इस प्रसंग में निम्न प्रारंभिक कारिकायें शब्दब्रह्म के स्वरूप की दृष्टि से विशेष महत्व की है : एकम् एव यद् प्राम्नातं भिन्न शक्ति-व्यपाश्रयात् । अपृथक्त्वेऽपि शक्तिभ्यः पृथक्त्वेनेव वर्तते ॥२ अध्याहित-कलां यस्य कालशक्तिम् उपाश्रिताः । जन्मादयो विकाराः षड्-भाव-भेदस्य योनयः ॥ ३ एकस्य सर्वबोजस्य यस्य चेयम् अनेकघा । भोक्त-भोक्तव्य-रूपेण भोग-रूपेण च स्थितिः ॥ ४ For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy