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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वयाकरण-सिद्धान्त-परम-लघु-मंजूषा मध्यमा-हृदय पर्यन्त आने वाली वायु से अभिव्यक्त होने वाली वही मूल वाणी, जिसे मूलाधारचक्र में 'परा' तथा नाभि प्रदेश में 'पश्यन्ती' नाम दिया गया था, हृदयप्रदेश में प्राकर 'मध्यमा' नाम से अभिहित होती है । 'मध्यमा' की स्थिति में एक विशिष्ट कम या प्रकार के साथ शब्द बुद्धि में प्रत्यवभासित होता है। परन्तु बुद्धि एक है तथा शब्द उस बुद्धि से अभिन्न है, इसलिये वस्तुतः शब्द भी अभिन्न एवं अक्रम ही रहता है। इसीलिए भर्तृहरि ने 'मध्यमा' को 'परिगृहीतकमा इव' कहा है। केवल बुद्धि से ही 'मध्यमा' वाणी का ग्रहण (ज्ञान) होता है, अतः इसे महाभारत में 'केवलं बुद्ध्युपादाना' कहा है तथा भर्तृहरि ने 'बुद्धिमात्रोपादाना' कहा है । (द्र० --स्वोपज्ञटीका, पृ० १२६-१२८) तत्तदर्थ-वाचक-शब्द-स्फोट रूपा-यहां यह कहा गया है कि मध्यमा वाणी ही 'स्फोट' है जो विभिन्न अर्थो का वाचक है । वस्तुतः वाणी की 'परा' तथा 'पश्यन्ती' स्थितियाँ तो जन सामान्य के लिये सर्वथा अगम्य हैं। इन दोनों ही स्थितियों में वाचक शब्द तथा वाच्य अर्थ की पृथक पृथक रूप से प्रतीति नहीं हो पाती। इस लिये इन दोनों के बाद वाली स्थिति 'मध्यमा' को ही 'स्फोट' (अर्थ का वाचक) माना गया । लघुमंजूषा (पृ० १७८-७६) में इस विषय को इन शब्दों में स्पष्ट किया गया है -"ततो हृदयपर्यन्तमागच्छता तेन वायना हदयदेशे अभिव्यक्त-तत्तद अर्थ-विशेषात्तत्तच्छब्द-विशेषोल्लेखिन्या बुद्ध या विषयीकृता हिरणयगर्भ-देवत्या परश्रोत्रग्रहणायोग्यत्वेन सूक्ष्मा 'मध्यमा वाग्' इत्युच्यते", अर्थात्--हृदय प्रदेश में अभिव्यक्त उन उन अर्थ-विशेष के लिये उन उन शब्द-विशेष का निर्धारण करने वाली बुद्धि का जो वाणी विषय बनती है वह 'मध्यमा' है । तात्पर्य यह हैं कि 'मध्यमा' की स्थिति में बुद्धि उस अर्थ-विशेष के लिये शब्द-विशेष का निश्चय कर लेती है जिसे वक्ता प्रकट करना चाहता है । यहां भी शब्द, स्थूल दृष्टि से अनभिव्यक्त, अथवा ईषद् अभिव्यक्त रहता है । __ श्रोत्र-ग्रहरणायोग्यत्वेन सूक्ष्मा- इस पाठ के स्थान पर लघुमंजूषा (पृ० १७६) का 'परश्रोत्र-ग्रहणायोग्यत्वेन' पाठ निश्चित ही अधिक स्पष्ट है । इसका अर्थ यह है कि दूसरों के श्रोत्रों के द्वारा श्रव्य न होने के कारण यह मध्यमा भी सूक्ष्म वाणी है। पलम० के पाठ का भी यही अभिप्राय है पर वह अस्पष्ट है । मध्यमा के विषय में लघुमंजूषा (पृ.० १७६) में "स्वयं तु कर्णपिधाने सूक्ष्मतरवाय्वभिघातेन उपांशुशब्दप्रयोगे च श्रूयमाणा सा इत्याहुः", अर्थात् दोनों कानों को बन्द कर देने पर सूक्ष्मतर वायु के आघात के साथ तथा मानस जप आदि के समय वह मध्यमा वाणी स्वयं को सुनाई देती है', यह कह कर स्पष्ट कर दिया गया कि स्वयं को तो 'मध्यमा' वाणी सुनाई देती है पर दूसरों को नहीं । 'मध्यमा' की अश्राव्यता का उल्लेख एक अन्य कारिका में भी मिलतावैखरी शब्दनिष्पत्तिमध्यमाऽश्रु तिगोचरा (लघुमंजूषा की कला टीका, पृ० १८१ में उद्धृत) बुद्धिनि ह्या-'मध्यमा' केवल अन्तःकरण या बुद्धि से ही ग्राह्य है। सामान्यतया श्रोत्राग्राह्य होने के कारण 'मध्यमा' केवल बुद्धि से ही ग्राह्य हो सकती है। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि पलम में यहीं कुछ आगे मध्यमा नाद के सम्बन्ध में ठीक इसी प्रकार की बातें कही गयी हैं। द्व०-"मध्यमानादश्च सूक्ष्मतरः कर्णपिधाने जपादौ च सूक्ष्मतरवायव्यंग्यः" । परन्तु साथ ही उसे शब्द-ब्रह्मरूप स्फोट का व्यंजक भी माना गया है। For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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