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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्फोट-निरूपण फिर हृदय से मुख तक आती हुई एवं (मुख के) ऊपरी भाग की ओर टकराती हुई वायु से, मूर्द्धा को अभिहत करके (पीछे) लौटने के पश्चात् उन उन स्थान विशेषों में प्रगट हुई एवं दूसरे के कानों द्वारा सुनी जा सकने वाली वाणी 'वैखरी' कहलाती है। इस (विषय) को (निम्न कारिका में) कहते हैं- "मूल चक्र में रहने वाली 'परा', नाभि में रहने वाली 'पश्यन्ती', हृदय में स्थित वाणी 'मध्यमा' तथा कण्ठ-देश में रहने वाली वाणी 'वैखरी' समझनी चाहिये"। उपरिनिर्दिष्ट कठिनाइयों के कारण, मीमांसकों तथा नैयायिकों के सिद्धान्तों को मानकर वर्णों या वर्ण समुदायों को वृत्तियों का आश्रय बनाना कथमपि सयुक्तिक नहीं हो सकता। इसलिये वैयाकरण-अभिमत 'स्फोट' को ही वृत्ति का आश्रय मानना चाहिये। 'स्फोट' का स्वरूप संक्षेप में यह है कि वर्णो की प्राकृत-ध्वनि से अभिव्यक्त होने वाला, परन्तु वर्णो से पृथक रह कर अर्थ का बोध कराने वाला, नित्य एवं निरवयव सूक्ष्म शब्द ही 'स्फोट' है। वर्षों से अभिव्यक्त होना तथा अर्थ का ज्ञान कराना इन दो दृष्टियों के कारण 'स्फोट' शब्द की व्युत्पत्ति दो तरह से की जाती है। पहली व्युत्पत्ति है'स्फुटति-अभिव्यज्यते वर्णः' (कर्म में' घञ्' प्रत्यय), अर्थात् जो वर्णो से अभिव्यक्त होता है। दूसरी व्युत्पत्ति है - 'स्फुटति-विकसति-प्रकाशते अर्थोऽनेन' (करण में 'धत्र' प्रत्यय), अर्थात् जिससे अर्थ का प्रकाशन होता है। वैयाकरण विद्वान् वाक्य में पद की तथा पद में वर्णो की वास्तविक सत्ता नहीं मानते । इसलिये वैयाकरणों में प्रमुख भर्तृहरि आदि अखण्ड वाक्य को 'स्फोट' मानते हैं तथा कुछ अन्य पद को 'स्फोट' मानते हैं। केवल शास्त्रीय प्रक्रिया के निर्वाह के लिये ये भर्तृहरि आदि विद्वान् पद-स्फोट या वर्ण-स्फोट की कल्पना को अवास्तविक सत्ता के रूप में मानते हैं । यह सब इस ग्रंथ के प्रारम्भ में स्पष्ट किया जा चुका है (द्र० -पूर्व पृष्ठ २-१३)। परा-'स्फोट' के स्वरूप के विषय में विचार करते हुए नागेश ने वर्ण के चार प्रकारों का भी यहां उल्लेख किया है। इन चतुर्विध वाणियों की विस्तृत चर्चा हमें सर्वप्रथम भर्तृहरि की अमर कृति वाक्यपदीय की स्वोपज्ञ टीका में देखने को मिलती है । वहां 'परा' वाणी को 'पश्यन्ती' का प्रकृष्ट रूप माना गया है तथा उसे अपभ्रशरहित एवं लोक-व्यवहारातीत बताया है-"परं तु पश्यन्तीरूपम् अनपभ्रंशम् असङ्कीर्ण लोकव्यवहारातीतम्" (स्वोपज्ञटीका १.१४३)। इसी टीका के एक अन्य स्थल पर भर्तृहरि ने 'परा' को वाणी की वह मूलावस्था माना है जिसमें सभी प्रकार के विकार प्रशान्त हो जाते हैं:-"प्रत्यस्तमित-सर्व-विकारोल्लेख-मात्रां परां प्रकृति प्रतिपद्यते” (१.१४) । इस वाणी को महाभारत में 'स्वरूप-ज्योति' तथा 'अन पायिनी' अर्थात् स्व-प्रकाशस्वरूपा एवं नित्य या विनाशरहित कहा गया है For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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