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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैयाकरण-सिद्धान्त परम-लघु-मंजूषा न होने से बाद बाद के वर्गों के श्रवण-काल में पहले पहले के वर्गों का ज्ञान भी असम्भव है। द्वितीये... इत्याद्यापत्तश्च- इसी तरह द्वितीय विकल्प में यद्यपि नैयायिक 'शब्दजशब्द' न्याय के द्वारा पद को प्रत्यक्ष तो प्रमाणित कर देता है फिर भी उससे अभीष्ट सिद्धि नहीं हो पाती, क्योंकि जब वर्ण वस्तुतः हैं ही नहीं तो वर्णों का समुदाय रूप पद भी अविद्यमान है। इसलिये उसे शक्ति का आधार नहीं माना जा सकता। और यदि इस अविद्यमान पद को 'शक्ति' का आश्रय माना गया तो फिर 'नष्टो घटो जलवान्' (फूटा हुआ घड़ा जल से पूर्ण है) इस प्रकार की असंगत बातें भी माननी पड़ेंगी। तृतीये.'' प्रत्ययापत्तेः--तीसरे विकल्प में जो दोष दिया गया है वह है क्रम-हीनता का दोष । पहले पहले के सभी वर्गों का संस्कार एक साथ शब्द के अन्तिम वर्ण के श्रवण के समय उपस्थित होता है यह इस विकल्प में कहा गया है । इसलिये पहले के वर्षों के संस्कार में कोई विशिष्ट क्रम हो ही यह आवश्यक नहीं है। अतः क्रम-विपर्यय होने पर शब्द का दूसरा अन भीष्ट अर्थ भी निकल सकता है। जैसे 'नदी' शब्द को कहने पर 'दीनः' शब्द का अर्थ, अथवा 'सरः' कहने पर 'रसः' शब्द का अर्थ भी प्रतीत हो सकता है। यहाँ यह पूछा जा सकता है कि इस तीसरे विकल्प में नैयायिकों पर जो क्रमहीनता का दोष दिखाया गया है क्या वह वैयाकरणभिमत 'स्फोट' के सिद्धान्त में नहीं है ? आखिर वैयाकरण भी तो 'प्राकृत ध्वनि' रूप वर्गों से ही 'स्फोट' की अभिव्यक्ति मानते हैं । परन्तु सूक्ष्म विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वैयाकरणों के 'स्फोट' सिद्धान्त में यह दोष नहीं है। क्योंकि स्फोटवादी वैयाकरणों की दृष्टि में 'स्फोट' सर्वथा निरवयव एवं अखण्ड है। क्रमिकता तो अपने अभिव्यंजक वर्गों की क्रमिकता के कारण 'स्फोट' में प्राभासित होती है। साथ ही वैयाकरण यह भी मानते हैं कि यद्यपि शब्द के प्रथम वर्ण से भी अखण्ड स्फोट की अभिव्यक्ति हो जाती है, परन्तु वह पूर्णतः, स्पष्ट रूप में भलीभांति, प्रगट नहीं हो पाती। शब्द के अन्य वर्गों के द्वारा बार बार की गयी आवृत्ति से उसी एक अखण्ड 'स्फोट' का पूर्ण प्रगटीकरण ठीक उसी प्रकार होता है जिस प्रकार एक पूरा अनुवाक या श्लोक बार बार की आवृत्ति से स्मरण हो जाता है । द्र० यथानुवाकः श्लोको वा सोढत्वम् उपगच्छति । प्रावृत्त्या न तु स ग्रन्थः प्रत्यावृत्ति निरूप्यते ॥ प्रत्ययर् अनुपाख्येयेर् ग्रहणानुगुणस् तथा । ध्वनि-प्रकाशिते शब्दे स्वरूपम् अवधार्यते ॥ (वाप०, १.८३-८४) इस ‘स्फोट' का चित्त में जिस विशिष्ट क्रम से संस्कार होता है उसी क्रम से व्यंजक ध्वनियों के द्वारा इस ‘स्फोट' की अभिव्यक्ति होती है। इसलिये वैयाकरणों की 'स्फोट'-कल्पना में उपर्युक्त दोष नहीं आता। द्र०-"येन क्रमेण चित्ते संस्कारस् For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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