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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लक्षणा-निरूपण ७५ द्वारा भी अनादि-तात्पर्यवश ही शब्द उन उन अर्थों को प्रकट करता है। जैसे 'त्वक' शब्द जिस तरह से 'चर्म' के अर्थ में प्रसिद्ध है उसी तरह 'चर्म इन्द्रिय' के अर्थ में भी। इसलिये 'निरूढ़ा लक्षणा' को 'अभिधा' का ही पर्याय समझना चाहिये। यह बात यहां संभवतः वैयाकरणों की दृष्टि से कही गयी है । तुलना करो ... "निरूढ़लक्षणायाः शक्त्यनतिरेकात्” (वभूसा०, पृ० २४५) । [लक्षणावृत्ति का खण्डन तन्न । “सति तात्पर्ये सर्वे सर्वार्थवाचकाः" इति भाष्यात् लक्षणाया अभावात्, वृत्तिद्वयावच्छेदक-द्वय-कल्पने गौरवात्, जघन्यवृत्ति-कल्पनाया अन्याय्यत्वाच्च । (नैयायिकों का) यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि "तात्पर्य होने पर सभी शब्द सभी अर्थों के वाचक हैं" इस भाष्य (के कथन) से लक्षरणावृत्ति का अभाव (ही सिद्ध होता) है, साथ ही (अभिधा तथा लक्षणा इन) दो वृत्तियों की दृष्टि से दो अवच्छेदकों (हेतुओं) के मानने में गौरव भी है तथा (मुख्य-अभिधा-वृत्ति से काम चल जाने पर) गौरण वृत्ति की कल्पना अनुचित है। वैयाकरणों को लक्षणावृत्ति अभिमत नहीं है। उनकी दृष्टि में शब्दों के वाच्यार्थ दो प्रकार के होते हैं एक प्रसिद्ध तथा दूसरा अप्रसिद्ध । जिसे मुख्यार्थ या वाच्यार्थ कहा जाता है वह प्रसिद्ध अर्थ है, तथा जिसे लक्ष्यार्थ कहा जाता है वह अप्रसिद्ध अर्थ है। महाभाष्यकार पतंजलि का यह कहना है कि "तात्पर्य की सिद्धि होने पर सभी शब्द सभी अर्थों के वाचक हैं। इस तरह जब सभी शब्द सभी अर्थों के वाचक हो सकते हैं तो फिर शब्द के प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध दोनों ही अर्थ शब्द की 'शक्ति' या 'अभिधावृत्ति' द्वारा ही कथित हो जायेंगे। अत, लक्षणावृत्ति मानने की आवश्यकता ही नहीं है। सति तात्पर्ये..."वाचका:-लघुमंजूषा में लक्षणावृत्ति के खण्डन के इस प्रसंग में (पृ० ११४-५३) नागेश ने इस हेतु का कहीं भी उल्लेख नहीं किया। यहाँ 'निरूढा लक्षणा' तथा 'रूढि शक्ति' का भेद दिखाते हुए कहा गया है-"त्वग् आदि शब्दानां 'त्वचा ज्ञातम्' इत्यादौ त्वग इन्द्रिये 'निरूढ-लक्षणा'। असति प्रयोजने शाक्यार्थ बोधप्रतिसन्धान-पूर्वकं तस्सम्बध्यपरार्थ-बोधे 'निरूढ-लक्षणा' इति व्यवहारः । अन्यथा 'रूढिशक्तिः ' एव इति बोध्यम्” । यहाँ भाष्य के नाम से जो उद्धरण दिया गया है वह भी महाभाष्य में नहीं मिलता । यों इससे मिलता जुलता एक दूसरा वाक्य महाभाष्य में द्रष्टव्य है-“सर्वे सर्वपदादेशाः दाक्षीपुत्रस्य पाणिनेः” (महा० १.१.१६, पृ० २६५) । प्राचार्य भर्तृहरि ने भी निम्न कारिकाओं में यह स्वीकार किया है कि सभी शब्द सभी अर्थों के वाचक हैं। For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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