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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ५८ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वैयाकरण- सिद्धान्त-परम- लघु-मंजूषा राजधानी - रूप- देशात्' 'परमेश्वर' - पदं राजबोधकम् । 'चित्रभानुर्भाति' इत्यादी रात्रौ अग्नी, दिवा सूर्ये । 'व्यक्ति': लिङ्गम् | ' मित्रो भाति', 'मित्रं भाति' इत्यादौ आदौ सूर्ये, ग्रन्त्ये सुहृत् । 'स्थूलपृषतीम्' इत्यादौ 'स्वरात्' तत्पुरुष - बहुव्रीह्यर्थ - निर्णयः । इति शक्ति-निरूपणम् 'संयोग' तथा 'विप्रयोग' के क्रमशः उदाहरण हैं- 'वत्स के सहित धेनु' तथा 'वत्स से रहित धेनु' । 'साहचर्य' का 'राम और लक्ष्मण' | "दो सदृशों का ही एक साथ प्रयोग होता है" इस नियम के कारण 'साहचर्य' का अभिप्राय सादृश्य है । 'उन दोनों की राम-अर्जुन की गति (दशा या स्थिति) है' इत्यादि में 'विरोध' के आधार पर ('राम' शब्द के अर्थ का ) निर्णय होता है । 'अञ्जलि से हवन करता है' 'प्रञ्जलि से सूर्योपस्थान करता है' यहां 'हवन' आदि पदों के अर्थ के कारण 'अञ्जलि' पद का भिन्न-भिन्न आकार वाली 'अञ्जलि' अर्थ होता है । सैन्धव लाओ' इत्यादि में प्रकरण से ( नमक या अश्व रूप ) अर्थ का निर्णय होता है । "घृत निश्चय ही तेज है" इस घृतस्तुति रूप लिङ्ग' से 'अक्ता:' इस पद का अर्थ 'घृत से ही कंकड़ों को चुपड़ना चाहिये' अर्थ होता है । 'जामदग्न्य ( जमदग्नि का पुत्र) राम' यहां 'जामदग्न्य' पद के समीप ( प्रयुक्त) होने के कारण 'राम' का अर्थ 'परशुराम' निश्चित होता है । 'अभिरूप ( सुन्दर अथवा विद्वान् ) को पुत्री देनी चाहिये' इत्यादि में 'सामर्थ्य' से 'अभिरूप' का अर्थ 'अभिरूपतर' (योग्यतर) प्रतीत होता है । 'जो (मनुष्य) नीम (वृक्ष) को परशु से, जो मधु तथा घृत से, जो सुगन्धियुक्त द्रव्य तथा माला आदि से (उन) सभी के लिये कटु ही होता है" - यहां 'प्रौचित्य' के कारण 'परशु' का अन्वय काटने में, 'मधु' तथा 'घृत' का अन्वय सिञ्चन में तथा 'सुगन्धियुक्त द्रव्य और माला आदि' का अन्वय पूजन में होता है। 'यहाँ परमेश्वर सुशोभित हो रहा है' इस प्रयोग में राजधानी रूप 'स्थान' के कारण 'परमेश्वर' पद 'राजा' अर्थ का बोधक है । 'चित्रभानु' ( सूर्य अथवा अग्नि) चमक रहा है, इत्यादि में ('चित्रभानु' शब्द का) रात्रि के समय अग्नि में तथा दिन के समय सूर्य में अन्वय होगा । 'व्यक्ति' (अर्थात्) 'लिङ्ग' (पुलिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग, नपुंसकलिङ्ग) | 'मित्र सुशोभित होता है' इत्यादि में 'पुलिङ्ग' 'मित्र' शब्द ('मित्र: ' ) का प्रयोग होने पर 'मित्र' शब्द का अर्थ 'सूर्य' होगा और 'नपुंसक लिङ्ग' वाले 'मित्र' शब्द ( मित्रम् ) का प्रयोग होने पर 'मित्र' (सखा ) अर्थ होगा । 'स्थूल- पृषतीम्' इत्यादि में 'स्वर (उदात्त श्रादि) के आधार पर तत्पुरुष समास या बहुव्रीहि समास के अर्थ का निर्णय होगा । ५: इ० में 'यादो' अनुपलब्ध । For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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