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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शक्ति-निरूपण है। जैसे- "भूमि पर पङ्कज (कमल) उत्पन्न हुमा"। यहां 'पङ्कज' शब्द में 'पङ्क जायते' इस यौगिकार्थ अथवा अवयवार्थ की थोड़ी सी भी प्रतीति नहीं होती। क्योंकि यहां भूमि (स्थल) पर कमलोत्पत्ति की बात कही गयी है-पंक या जल में नहीं। इसी प्रकार दूसरे उदाहरण-"कल्हार तथा कैरव आदि प्रमुख पङ्कजों (कमलों) के रहते हुए" इस प्रयोग में 'पङ्कज' शब्द में 'रूढ़ि' अर्थ की कुछ भी प्रतीति नहीं होती क्योंकि कल्हार तथा कैरव रूढ़ि के अनुसार कमल नहीं है। वस्तुतः 'योगरूढ़ि' को विद्वानों ने दो प्रकार का माना है-पहला वह जिसमें कुछ 'योग' अर्थ तथा कुछ 'रूढि' अर्थ का बोध होता है, जैसे 'पङ्कज' आदि शब्द । दूसरा प्रकार वह है जिसमें कहीं केवल 'रूढि' अर्थ की प्रतीति होती है, तो कहीं केवल 'योग' अर्थ की। इस दूसरे प्रकार में ही ये ऊपर के उदाहरण प्राते हैं । स्पष्टं चेदम् ... भाष्ये-पाणिनि के 'प्रार्हाद्' (पा० ५.१.१६) इस सूत्र के भाष्य में पतंजलि ने इसी तथ्य की ओर संकेत करते हुए निम्न वाक्य कहे हैं-प्राह अयम् परिमारणं या संख्येति, न चास्ति संख्या परिमाणम्, तत्र वचनाद् इयती विवक्षा भविष्यति । इसका अभिप्राय यह है कि पाणिनि ने संख्यायाः संज्ञासङ्घ-सूत्राध्ययनेषु (पा ५.१.५८.) में 'परिमारण' को 'संख्या' का विशेषण माना है, क्योंकि इस सूत्र में पहले सूत्र तदस्य परिमाणम् (पा ५.१.५७) से 'परिमाण' पद की अनुवृत्ति आ रही है । परन्तु संख्या कभी भी 'परिमाण' अर्थात् मापविशेष, नहीं बन सकती, क्योंकि वह तो केवल भेद या भिन्नता अर्थ का ही बोध कराती है। वह 'मान' या 'परिमाण' को कभी भी नहीं कहती। इसीलिए संख्या को सभी प्रकार के 'मान' से भिन्न माना जाता है। द्र० "सख्या बाझा तु सर्वतः भेदमात्रं ब्रवीत्येषा, नेषा मानं कुतश्चन ॥ (महा० ५.१.१९) इस प्रकार यदि 'परिमाण' शब्द का रूढि अर्थ, अर्थात् माप विशेष, ही लिया जाय तब पाणिनि का उपर्युक्त सूत्र असंगत हो जाता है। अतः आचार्य पाणिनि के वचन-सामर्थ्य से यहां 'परिमारण' शब्द को रूढ़ि न मान कर, उसे योगरूढि मानते हुए उसका केवल यौगिक या योग अर्थ-'परिच्छेदकतामात्र' ही अभिप्रेत मानना चाहिये। इस रूप में पतंजलि के इस कथन के अनुसार यहां का 'परिमाण' शब्द 'योगरूढ़ि' के उस प्रकार का उदाहरण है, जिसमें केवल 'यौगिक' अर्थ ही अभिप्रेत है। कुछ लोग ऐसे स्थलों में भी लक्षणा मानते हैं। द्र०-ईदृशे विषये लक्षणा इत्यन्ये (महा० उद्योत, ५.१.१६) ['योगिकरूढि' को परिभाषा] अश्वगन्धादिपदम् अोषधिविशेषे 'रूढम्' । अश्वसम्बन्धिगन्धवत्तया वाजिशालाबोधे 'यौगिकम्' । इदं 'यौगिकरूढम्, For Private and Personal Use Only
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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