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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १. २. ३. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शक्ति-निरूपण प्रयुजते । तम् एव च बुध्यन्ते' । म्लेच्छास् तु प्रियङ्गौ प्रयुजते, तम् एव च बुध्यन्ते । तथाप्यार्य-प्रसिद्ध र् बलवत्त्वात् वेदे दीर्घ-३ - शुकपरतैवेति सिद्धान्तितम् । तव तु म्लेच्छ-बोधस्य शक्ति-भ्रम- मूलकत्वेन भान्ति-विषय- रजतज्ञानस्येव म्लेच्छ-प्रसिद्ध र् वस्त्वसाधकतया प्रार्य - म्लेच्छप्रसिद्ध्योः कस्या बलवत्त्वम् इति विचारासंगतिः स्पष्टैव । इसीलिये (अपभ्रंश शब्दों में भी वाचकता शक्ति के होने के कारण) 'आर्य म्लेच्छ' नामक ( मीमांसा - शास्त्र का ) अधिकरण सुसंगत हो पाता है । उस अधिकरण में यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है कि यद्यपि आर्य लोग 'यव' शब्द का प्रयोग लम्बे 'शूक' ( नोक ) वाले (अन्न) के लिये करते हैं तथा उसे ही ( ' यव' शब्द से ) जानते हैं । परन्तु म्लेच्छ लोग ( इस शब्द का प्रयोग ) 'प्रियङ्गु' नामक ( एक दूसरे) अन्न के लिये करते हैं तथा 'यव' शब्द से उसे ही जानते हैं । परन्तु आर्यों की प्रसिद्धि (व्यवहार) के बलवान् होने से वेद में यह शब्द 'जौ' (या 'जव') अथ वाला है । तुझ नैयायिक के मत में तो म्लेच्छों (अथवा अपशब्द - भाषियों) का अर्थ-ज्ञान शक्ति-विषयक भ्रम के कारण है इसलिये, भ्रान्ति के विषय- भूत (सीपी में ) रजत - ज्ञान के समान ही, म्लेच्छों की 'प्रसिद्धि' (प्रयोग अथवा व्यवहार) के अर्थ-साधक न होने के कारण (प्रार्य - प्रसिद्धि और म्लेच्छ प्रसिद्धि में से) कौन अधिक बलवान् है - इस विचार की असंगति स्पष्ट ही है । ४७ श्रत एव सिद्धान्तितम् - मीमांसा दर्शन के आर्य - म्लेच्छाधिकरण में यह समस्या प्रस्तुत की गयी है कि श्रुतियों तथा स्मृतियों में प्रयुक्त किसी विशिष्ट शब्द के किस अर्थ को प्रामाणिक माना जाय ? आर्यों की भाषा में शब्द जिस अर्थ में प्रसिद्ध है अथवा व्यवहृत होता है उस अर्थ को प्रमाणिक माना जाय या म्लेच्छों (प्रशिक्षितों, शूद्रों) की भाषा में वह शब्द जिस अर्थ में व्यवहृत होता है उस अर्थ को प्रमाणिक माना जाय ? जैसे 'यव' शब्द आर्यों की भाषा में लम्बी नोक वाले जव के लिये, 'वराह' शब्द सूअर के लिये तथा 'वेतस्' शब्द बेंत के लिये प्रसिद्ध है । परन्तु म्लेच्छों की भाषा में 'यव' आदि शब्द प्रियङ्गु आदि अन्य अर्थों में व्यवहृत होते हैं । प्रकाशित संस्करणों में यहां का 'तम् एव च बुध्यन्ते' यह पाठ नहीं मिलता । तुलना करो - न्यायवार्तिक तात्पर्यटीका ( पृ० ४२० ); तथा हि 'यव' - शब्द आयेर् दीर्घ-शुके पदायें प्रयुज्यते । ते 'यब' शब्दाद् दोघं पदार्थं प्रतिपद्यन्ते । म्लेच्छास् तु प्रियङ्गुम् प्रतिपद्यन्ते । For Private and Personal Use Only तुलना करो - मीमांसा दर्शन, शबर-भाष्य, (१1३/४ | ८- ६); आर्य-प्रसिद्धया 'यव' शब्देन दीर्घशुका: ( सक्तवः), 'वराह' - शब्देन सूकरः, 'वेतस्' – शब्देन अप्सुजो जुलो ग्राह्यः, न तु म्लेच्छ प्रसिद्ध या प्रियङ्गवः ।
SR No.020919
Book TitleVyakaran Siddhant Param Laghu Manjusha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagesh Bhatt, Kapildev Shastri
PublisherKurukshetra Vishvavidyalay Prakashan
Publication Year1975
Total Pages518
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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