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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गन्तैिः य-म-न-स-भ-लैः कवि-जन-समाराधितधियां महामा- . न्या सा शिखरिणी ।। (टीका) यस्यां प्रतिवरणं प्रथमो वर्णो लघुरायाति, एवं षष्टात्परतोऽर्थात् सप्तमादारभ्य पञ्च, उपान्त्याः - चतुर्दश-पञ्चदशषोड़शान्त्रप इत्येते वर्णाश्च लघव आयान्ति विरामश्च प्रथमं षड्भिस्तत एकादशभिर्भवति यगण-मगण-नगण-सगण-भगणैर्लघुगुरुभ्यां चोपलक्षिता कविवरैः समाराधिता- धन्यवादपात्रीकृता धी:- बुद्धिर्यषां तेषां महाकवीनामिति यावत् महामान्याअतिमाननीया सा शिखरिणीत्यर्थः । अत्र (15ऽऽऽSIIISSIS) इति प्रतिपादं स्वरवर्णविन्यासो द्रष्टव्यः ॥ (प्रति०) अनुपतति आयाति । उपान्त्याः अन्त्यपूर्वस्थाः । प्रतिपदम् प्रति चरणम् । रुदै: एकादशमिः । गान्तः- गुर्वक्षरान्तैः ॥ । (भाषा) जिस के प्रत्येक चरण में यगण मगण नगण सगण भगण और लघु रहने के कारण पहला, तथा छठे से लेकर पाँच, एवं चौदहवा, पन्द्रहवा, और सोलहवा अक्षर लघु हो वह शिखरिणी छन्द कहलाता है । इसमें छठे और मन्तिम अक्षर पर विश्राम होता है । इस के प्रत्येक चरण के स्वरवर्णन्यास का क्रम(Iऽऽऽऽऽऽऽ|||s) इस भांति है।३६। पृथ्वी द्वितीयमथ षष्ठकं गुरु तथाऽष्टमं द्वादश, सपञ्चदशमन्तिमं यदि चतुर्दशं राजते । For Private And Personal Use Only
SR No.020917
Book TitleVruttabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShwetambar Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha
PublisherShwetambar Sadhumargi Jain Hitkarini Samstha
Publication Year1929
Total Pages63
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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