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________________ ( १८२ ) ता, इससे कोई कैसानी साधु अवंदनीय नही हो सकता है, जैनागम मे जोजो निषेध हैं वह सब अत्यंत भ्रष्ट निन्दक कुकर्म के वंदना करने के निषेधक हैं, यह स्पष्टही प्रकाशित होता है ॥ और यह जो लिखा कि बीत रागके वचनको उलटा कहे लोके वास्ते उलटी प्ररूपणा करे सो मिथ्यादृष्टि जाणवो, इसपर महानिशीथका पाठ लिखा सो ठीक परंतु उलटी प्ररूपणा लिख नेवालेही की मालूम होती है, कारण की टीका कार और ग्रंथ कारोंके स्पष्ट वर्णित और सर्वसं मत सूत्रो के अर्थ द्वेषसे वंदनीय को वंदनीय कहनेके लिये अनर्थ किये, सूत्रों का यथार्थ तात्पर्य ग्रंथ कारोके अनुसार ऊपर लिखा है सो सूज्ञलो ग माध्यस्थ बुद्धि से जानेंगे ॥ यद्यपि लोकमे यह साधु है ऐसा व्यवहार तो रजोहरणादि लिंग देखनेही से होता है वह कैसा जी होय, नमो सन्साहूणं इस्से वहनी वंदनीय हु, जैसा नाटकादिमे देवताके वेषही को देख के सबलोक वंदना करते हैं, और गमों का जी तात्पर्य लिंगमात्र देखके वंदना करना ऐसा है तथापि आगममे निषेध किये है उनका तात्प र्य यह है कि जो लिंग धारण करके कुकर्म करे वह अवंदनीय होनेसे लज्जित होके उस कुकर्म से निवृत्त होय पुनः कुकर्म न करे, उस पर भी
SR No.020913
Book TitleViveksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Hiralal Hansraj
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1878
Total Pages237
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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