SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ देता है और जो नक्त नहीं है तुच्छ स्वभाव है देनेका मन नही है बह फूठों ही अनेक तरहका विचार करता है (४६) जो दुष्ट केवल लिंगी अ र्थात् वेषधारीमे नी अपात्र है ऐसी बुछि करते हैं निश्चय है ऐसा करनेवालेही पात्र नही हैं वह आप पात्र होते तो दूसरेको पात्र कहते प्रापही पात्र नही है तो दूसरेको क्या पात्र कहेंगे (१७) दरिद्री दुष्टचित्तवाले पुरुष केवल शाहार और वस्त्र देनेमे यह पात्र है या नही ऐसी परीक्षा करते क्यों नही लजित होते हैं (४८) सर्वज्ञ भग वान् जिनके हृदयमे हैं, वीतरागका वचन मुख मे है, कायामे नमस्कारादि क्रिया है, प्रारंजनी चैत्यकृत्य विषयी है अर पापसे करते हैं ऐसे हीन नी सम्यक् दृष्टी लिंगियोंमे यह सब गुण है तो मैजानताहुं कि वह लिंगी सब जगतसे अधिक पात्र हैं जगत्मे उनके बराबर कोई पात्र नही है शेष भर क्या ढूंढना है (४९) तीसरे गुण ठाणे से ऊपर क्रमसे चौदहवें गुण ठाणे तक सब ही सबके अपेक्षा से निर्गुण भर सगुण है (५०) इस दुखमा कालमे प्रायः साधु कुशील, वकुशादिक, शबलचारित्र, सातिचार अर प्रमादीही हैं (५१) कहीं सगुण निर्गुण होजाता है अर निर्गुण सगुण होजाता है इससे सगुण निर्गुणके निश्चय करनेमे कोई समर्थ नही होता है इसलिये सबही मुनि MINI
SR No.020913
Book TitleViveksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Hiralal Hansraj
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1878
Total Pages237
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy