SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ९७ ) R end permanenocence गुरुनी मारखातां क्रोध न कीधो विनय कस्यो तो केवल लह्यो ते ऊपर चंझरुद्राचार्य तथा नवपरिणीत शिष्यनी कथा कही बे, उजेणी नगरीयें चंडरुद्राचार्य चोमासें रह्या अतिरीसालु थो बोले घणी रीसचढे वहा महात्माने ढूको उपाश्रय राख्या जोसहुंई समेला रहो तो रखें गुरुने रीस चढी तहवे अवसरे किणहीक व्यव हारियानो पुत्र नवपरिणीत शालामित्रने परि वारें परिवस्यो थको रामति क्रीडा करतां जिहां जती घणा वैठा दीठा तिहां हावी वैठा तेहवे शालामित्रे हसी कह्यो महात्मन् ए तुमपासी दीदा लैजे एहने दीकाद्यो तेहवे साधुयें कह्यो शम्हे न जाणुं गुरू जाणे तो तुम्हे अम्हने गुरु देखाडो शिष्ये पुरुष देखाच्या तिहां आवी बांद्या जिहां शालो हंस्यो नगवन् एदीदालेसे हास्य मिसें वारवार कह्यो एतले गुरुने रोष ऊपनी तत्काल पकडकर लोच कीधो एहवे शालामित्र प्रमुख विषाद पाम्या अम्हेतो हंसतां कह्यो तो गुरुएं रीसवसे सांचो कीधो शाला मित्र प्रमुख नांसी गया तारे नव दीक्षित सुशिष्ये कह्यो नग वन् ! इहां रहतां तुमने सुख नही हमारा सगा स्वामी तुमने दूहबसे तेनणी अनेथी जइये तेहवें गुरु रीसवशथकी कह्यो रेपापिष्ट दुरात्मन् किणे कह्यो तूं दीदा लेजे एहवे शिष्ये दमा करी चरण -
SR No.020913
Book TitleViveksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Hiralal Hansraj
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1878
Total Pages237
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy