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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३८ ) यदि अधिक समय तक जीते रहले तो हमारा भविष्य कुछ और मुधर जाता ॥ (५) दोनों ने पवित्र भारत भूमि मेंही आकर प्राण त्याग किये. विवेका नन्द ने सन् १६०२ में बेवर मठमें और वीर चन्द ने सन् १९०१ में बम्बई में। (६) स्वामी विवेकानन्द के प्रबल विचारों के लिये उनके शिष्य मंडल ( अभेदानन्द प्रादि ) ने राम कृष्ण सोसाइटी आदि अनेक संस्थायें स्थापित की । परन्तु शोक कि वीरचन्द के प्रवल विचारों के असर से कोई जैन संस्था स्थापित न रहसकी, यह बात नहीं है बल्कि वीरचन्द के स्मणार्थ कोई संस्था स्थापित करने का प्रयत्नही नहीं किया गया । ... श्रीमद्भवीरचन्द प्रत्येक सज्जन के हृदय में अभीतक स्थित हैं उनका शरीर नष्ट होगया परन्तु वे नष्ट नहीं हुये हैं । उनका यश रूपी शरीर अमृत और अमर है । अंग्रेजी कहावत है To live in hearts we leave behind; is not death अर्थात हृदय में रहना मृत्यु नहीं है । तीर्थादि कार्यों में विजय प्राप्त करने में, जैन धर्म के प्रसार करने में, जड़वादियों के हहयों पर जैन संस्कारों की छाप डालने में श्रीवीरचन्द ने अपने मन वचन और शरीर से जो प्रात्म त्याग किया है, उसके लिये सारा जैन समाज उनका ऋणी है । इस ऋण से स्वस्थ होने के हित के लिये नहीं बल्कि अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करने के लिये भी जैन समाज ने अपना कर्तव्य किस प्रकार पूरा किया। इसका विचार प्रातही समाज की स्थिति और उसके अध: पतन का दृश्य नाचने लगता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020902
Book TitleVirchand Raghavji Gandhi Ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyamlal Vaishya Murar
PublisherJainilal Press
Publication Year1919
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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