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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री-वीरवर्धमानचरिते [६.७१एतैरष्टगुणः कृत्वा सबलं दर्शनं यमी। तेन कर्मरिपून हन्याद्यथा राज्याङ्गभृन्नपः ॥७१॥ देवलोकाप्रशस्तान्यसमयोत्थं त्रिधात्मकम् । पापाकरं स धर्मघ्नं मूढत्वं सर्वथात्यजत् ॥७२॥ सजातिसुकुलैश्वर्यरूपज्ञानतपोबलाः । शिल्पित्वं बहुधात्रेति मदा अष्टौ कुमार्गगाः ॥७३॥ जात्यायैः सद्-गुणैर्युक्तः सन्मप्येषोऽखिलं जगत् । जानन् नित्यातिगं तेषु नावहज्जातु दुर्मदम् ॥७४।। मिथ्यादृज्ञानचारित्रास्तद्वन्तः क्वध्वगा जडाः । इत्यनायनं षोढा श्वभ्रदं सोऽत्यजत् विधा ॥७५॥ निःशङ्कादिगुणेभ्यो ये दोषाः शङ्कादयोऽशुभाः। विपरीताहितानष्टौ सर्वथा स निराकरोत् ॥७६॥ एतान् प्रक्षाल्य चिन्नीरात्पञ्चविंशति दृ'मलान् । दर्शनं निर्मलीकृत्य तद्विशुद्धिं चकार सः ॥७॥ संवेगस्किनिर्वेदो निन्दा गईणमेव हि । सर्वतोपशमो भक्तिर्वात्सल्यमनुकम्पिका ॥८॥ अमीमिरष्टभिः सारैर्गुणैरलङ कृतो मुनिः । तार्थेशोह्याद्यसोपाने दृग्विशुद्धौ स्थितिं व्यधात् ॥७९॥ ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराणां च तद्वताम् । गुणाधिकमुनीनां स त्रिशुद्ध्या विनयं भजेत् ॥८॥ अष्टादशसहस्रप्रमशीलांश्च व्रतात्मनः। यत्नेन पालयेन्नित्यं सोऽतीचारपरा 1८१॥ अभीक्ष्णमङ्गपूर्वादिज्ञानमज्ञानघातकम् । पठेच्च पाठयेच्छिष्यान् निःप्रमादोऽघशान्तये ॥२॥ देहभोगाङ्गवर्गेषु कृत्स्नानर्थकरेषु सः । मोहाक्षारातिहन्तारं संवेगं भावयेत् परम् ॥१३॥ किरणोंसे नाश करके और जैन शासनका प्रकाश करके धर्मकी प्रभावना की ॥७॥ उन संयमी मुनिराजने इन उपर्युक्त आठ गुणोंके द्वारा अपने सम्यग्दर्शनको सबल करके और उसके द्वारा कर्मरूप शत्रुओंको विनष्ट किया; जैसे कि राजा अपने राज्यके अंगोंको पुष्ट करके शत्रुओंको नष्ट करता है ॥७॥ उन्होंने देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता और अन्य मतोंसे उत्पन्न हुई पाखण्डमूढ़ताको जो कि पापकी खानि हैं और धर्मकी घातक हैं, सर्वथा छोड़ दिया था |७२।। उन्होंने सज्जाति, सुकुल, ऐश्वर्य, रूप, ज्ञान, तप, बल और अनेक प्रकार शिल्पकलाचातुर्यरूप आठों मदोंको जो कि कुमागमें ले जानेवाले हैं, सर्वथा छोड़ दिया था। यद्यपि वे स्वयं सजाति, सुकुल आदि सद्-गुणोंसे युक्त थे, तथापि इस समस्त जगत्को अनित्य जानकर उक्त जाति-कुलादिकका उन्होंने कभी अहंकार नहीं किया ।।७३-७४|| उन्होंने मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्र और इनके धारक कुमार्गगामी जड़ (मूर्ख), सेवक इन छहों प्रकारके नरक ले जाने वाले अनायतनोंको त्रियोगसे त्याग कर दिया था ।।७५|| निःशंकित आदि गुणोंसे विपरीत और अहितकारी शंका आदि अशुभ दोष हैं, उनको उन्होंने सर्वथा दूर कर दिया था ॥७६॥ उन मुनिराजने सम्यग्दर्शनके इन पचीस मलोंको ज्ञानरूपी जलसे धोकर और सम्यग्दर्शनको निर्मल करके उसकी परम विशुद्धि की ॥७७॥ संवेग, संसार-शरीर और भोग इन तीनोंसे विरक्तिरूप निर्वद, निन्दा, गहण, सर्वत्र उपशमभाव, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा इन सारभूत आठ गुणोंसे अलंकृत उन मुनिराजने तीर्थकरपदके प्रथम सोपानस्वरूप दर्शनविशुद्धिमें अपने-आपको अवस्थित किया ॥७८-७९।। वे मुनिराज दर्शन ज्ञान चारित्र और उपचार विनय, तथा इनके धारण करनेवाले अधिक गुणशाली मुनियोंकी त्रियोगकी शुद्धिपूर्वक विनय करते थे ॥८॥ उन्होंने अतीचारोंसे पराङ्मुख रहते हुए अठारह हजार शीलोंको और व्रतोंको यत्नके साथ नित्य पालन किया ॥८१॥ अज्ञानका घात करनेवाले अंग और पूर्वरूपादि रूप श्रुतज्ञानका वे निरन्तर पठन करते थे और पाप-शान्तिके लिए प्रमाद-रहित होकर शिष्यों को पढ़ाते थे ।।८२।। वे मुनिराज सर्व अनर्थोंके करनेवाले शरीर, भोग और संसारके कारणभूत पदार्थों में मोह और इन्द्रियरूप शत्रुओंका नाशक परम संवेगकी भावना करते थे ।।८३॥ १. अ पराङ्मुखान् । For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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