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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६.४२ ] षष्ठोऽधिकारः इत्यादि चिन्तनादाप्य वैराग्यं द्विगुणं नृपः । तमेव योगिनं कृत्वा हत्वा द्विविधोपधीन् ॥ २८ ॥ अनन्तजन्मसंतानधातकं मुनिसंयमम् । आददे परया शुद्धया सिद्धये सिद्धिकारणम् ॥२९॥ गुरूपदेशपोतेनाश्वेकादशाङ्गवारिधेः । पारं जगाम नन्दोऽसौ निःप्रमादेन सहिया ॥३०॥ स्ववीयं प्रकटीकृत्य द्विषड्भेदं तपः परम् । प्रारंभे सर्वशक्त्या संकतु कर्मन्नमित्यसौ ॥३१॥ पक्षमासादिषण्मासावधि सोऽनशनं तपः । शोषकं सकलाक्षाणां कर्माद्रिवज्रमाचरेत् ॥ ३२ ॥ एकग्रासादिनानेकभेदभिन्नं तपो भजेत् । आत्मवानवमोदर्यं क्वचिन्निद्राघहानये ॥३३॥ आशाक्षयकरं वृत्तिपरिसंख्याभिधं तपः । चतुरेकगृहाद्यैश्च सो लाभायान्यदा चरेत् ॥ ३४ ॥ तपो रसपरित्यागं भजतेऽसौ जितेन्द्रियः । निर्विकृत्या क्वचित्काञ्जिकाने नात्यक्षशर्मणे ॥३५॥ स्त्रीपण्डकादिनिःक्रान्ते गुहागिरिवनादिके । ध्यानाध्ययनकृद् धत्ते विविकं शयनासनम् ॥३६॥ झञ्झावातमहावृष्ट्या व्याप्ते मूले तरोरसौ । प्रावृट्काले स्थितिं कुर्याद् धैर्य कम्बलसंवृतः ॥३७॥ चत्वरे वा सरितीरे तुषाराकेऽतिदुःसहे । कायोत्सर्ग विधत्ते हेमन्ते दग्धद्रुमोपमः ॥ ३८ ॥ भानुरम्यौघसंतप्तेऽद्रिमूर्धस्थशिलातले । ग्रीष्मे ध्यानामृतास्वादी स तिष्ठेत् सूर्यसम्मुखः ॥ ३९ ॥ इत्याद्यैर्विविधैर्योगैः कायक्केशाभिधं तपः । कायाक्षशर्महान्यै स धीरधीः कुरुतेऽनिशम् ॥४०॥ एवं बाह्यं स षड्भेदं तपोऽभ्यन्तरवृद्धिदम् । प्रत्यक्षं च नृणां कुर्याद् वृद्धयेऽन्तस्तपश्चिदाम् ॥४१॥ प्रायश्चित्तं तपो वृत्तशुद्धिदं सोऽनिशं चरेत् । दशधालोचनाद्यैश्च निःप्रमादः स्वशुद्धये ॥ ४२ ॥ ५३ है ||२७|| इत्यादि चिन्तवनसे दुगुने वैराग्यको प्राप्त होकर राजा ने उन्हीं योगिराजको गुरु बनाकर, दोनों प्रकार के परिग्रहों को छोड़कर अनन्त संसार-सन्तानके नाशक सिद्धिका कारण ऐसा मुनियोंका सकल संयम परम शुद्धिसे ग्रहण कर लिया ||२८-२९ || गुरुके उपदेश रूप जहाजसे वह नन्द मुनि निःप्रमाद और उत्तम बुद्धिके द्वारा शीघ्र ही ग्यारह अंगरूप श्रुतसागर के पारको प्राप्त हो गया ||३०|| पुनः उसने अपने पराक्रमको प्रकट करके कर्मोंका नाशक बारह प्रकारका परम तप अपनी शक्तिके अनुसार करना प्रारम्भ किया ||३१|| वे नन्दमुनि सर्व इन्द्रियोंका शोषक, कर्म-पर्वतके भेदन के लिए वज्रतुल्य, ऐसे अनशन तपको पक्ष, मास आदिसे लेकर छह मास तककी मर्यादापूर्वक करने लगे ||३२|| कभी निद्राके पापनाश करने के लिए एक ग्रास आदिसे लेकर अनेक भेदरूप अवमोदर्य तपको वे आत्मलक्षी नन्दमुनि करने लगे ||३३|| आशाका क्षय करनेवाले वृत्तिपरिसंख्यान तपको एक, दो, चार आदि घरोंतक जानेका नियम कर आहार-लाभके लिए करने लगे ||३४|| वे जितेन्द्रिय मुनिराज अतीन्द्रिय सुखकी प्राप्ति के लिए कभी-कभी निर्विकार वृत्तिसे कांजिक अन्नको लेकर रसपरित्याग तप करते थे ||३५|| वे स्त्री-नपुंसक आदिसे रहित, गिरि-गुफा, वन आदिमें ध्यान और स्वाध्यायको करनेवाले विविक्त शयनासन तपको करते थे ||३६|| वे वर्षाकालमें झंझावात और महावृष्टिसे व्याप्त वृक्षके मूल में धैर्य रूप कम्बल ओढ़कर बैठते थे ||३७|| तुषारसे व्याप्त, अतिशीतल हेमन्त ऋतु में वे मुनिराज जले हुए वृक्ष के समान होकर चौराहोंपर अथवा नदी के किनारे कायोत्सर्ग करते थे ||३८|| ग्रीष्मकालमें सूर्यकी किरणोंके पुंजसे सन्तप्त पर्वत के शिखरपर स्थित शिलातल पर ध्यानामृतरसके आस्वादी वे मुनिराज सूर्य के सम्मुख बैठते थे ||३९|| इनको आदि लेकर नाना प्रकारके योगोंके द्वारा वे धीर-वीर मुनिराज काय और इन्द्रिय सुख के नाश करने के लिए निरन्तर कायक्लेश नामक तपको करते थे ||४०|| For Private And Personal Use Only इस प्रकार यह बाह्य छह भेदरूप तप मनुष्योंके प्रत्यक्ष है और आभ्यन्तर तपकी वृद्धि करनेवाला है | अतः वे मुनिराज अन्तरंग तपोंकी वृद्धिके लिए बाहा तप और चैतन्य गुणोंको प्राप्ति के लिए अन्तरंग तप करने लगे ॥४१॥ अन्तरंग तपोंमें प्रथम तप प्रायश्चित्त है, यह
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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