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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir षष्ठोऽधिकारः हन्ता मोहाक्षशत्रूणां त्राता भव्याङ्गिनां भवात् । कर्ता चिद्धर्मतीर्थानां वीरोऽस्तु तद्गुणाय मे ॥१॥ अथै कदा स धर्मार्थ प्रोष्ठिलं योगिसत्तमम् । वन्दितुं मतिमान् भक्त्या ययौ भव्यगणावृतः ॥२॥ तत्राभ्याष्टभिव्यैर्दिव्यैर्भक्त्या मुनीश्वरम् । मूर्ना नत्वा स धर्माय तत्पादान्तमुपाविशत् ॥३॥ तद्विताय परार्थी सोऽनघं धर्म नृपं प्रति । इत्युक्तुं सुगिरारेभे लक्षणैर्दशभिः परैः ॥४॥ धीमन् धर्मः परः कार्यः क्षमयोत्तमया त्वया । उपद्वे कृते दुष्टैर्जातु कोपो न धर्महृत् ॥५॥ कर्तव्यं मार्दवं दक्षमनोवाक्कायकोमलैः। धर्मार्थ न च काठिन्यं योगानां धर्मनाशकृत् ॥६॥ धर्माङ्गमार्जवं धार्यमवक्रर्योगकर्मभिः । न वक्रता विधेयात्र क्वचिद्धर्मविनाशिनी ॥७॥ वक्तव्यं वचनं सत्यं धर्म संवेगकारणम् । धर्मिभिधर्मसिद्धयर्थ नासत्यं धर्मनाशकम् ॥८॥ इन्द्रियार्थादिवस्त्वौघे लोलुपं लोमशात्रवम् । हत्वा निर्लोभधर्माङ्ग शौचं कार्य न नीरकृत् ॥९॥ षडङ्गिनां दयां कृत्वा निग्रहं चाक्षचेतसाम् । संयमो धर्मसिद्धयर्थमनुप्टेयो न चेतरः ॥१०॥ विधेयानि तपांस्येव धर्मसिद्विकराण्यपि । बुधैर्धादशभेदानि स्वशक्त्या धर्मसिद्धये ॥११॥ परिग्रहपरित्यागं दानं श्रुतदयोद्भवम् । धर्महेतोविधातव्यं धर्मदं च गुणाकरम् ॥१२॥ मोह और इन्द्रियरूप शत्रुओंके हन्ता, संसारसे भव्य प्राणियोंके त्राता, और ज्ञान एवं धर्मतीर्थ के कर्ता श्रीवीर भगवान इन गुणोंकी प्राप्ति के लिए मेरे सहायक हों ॥१॥ .. अथानन्तर एक बार भव्यजनोंसे घिरा हुआ वह बुद्धिमान् नन्द राजा धर्म-प्राप्तिके निमित्तसे प्रोष्ठिल नामक योगिराजकी वन्दनाके लिए भक्तिके साथ गया ॥२॥ वहाँ पर दिव्य अष्ट द्रव्योंसे भक्ति पूर्वक मुनीश्वरकी पूजा करके और मस्तकसे नमस्कार करके धर्म-श्रवण करनेके लिए उनके चरणोंके समीप बैठ गया ॥३।। तब परोपकारी उन मुनिराजने राजाके हितार्थ दश लक्षण रूप उत्तम भेदोंके द्वारा निर्दोष धर्मको उत्तम वाणीसे इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया ॥४॥ हे धीमन् राजन्, दुष्टजनोंके द्वारा उपद्रव करने पर भी धर्मका नाश करनेवाला क्रोध कभी नहीं करना चाहिए और उत्तम क्षमासे युक्त धमे धारण करना चाहिए ॥५॥ चतुर जनोंको धर्मके लिए मन वचन कायकी कोमलतासे मार्दव भाव रखना चाहिए और धर्मके नाशक भोगोंकी कठोरता नहीं रखना चाहिए ॥६॥ सरल मन वचन कायसे धर्मका अंग आर्जव भाव धारण करना चाहिए और धर्मविनाशिनी कुटिलता यहाँ कभी भी नहीं करनी चाहिए ||७|| धर्मोजनोंको धर्मकी सिद्धिके लिए धर्म और वैराग्यके कारणभूत सत्य वचन बोलना चाहिए और धर्मनाशक असत्य नहीं बोलना चाहिए ॥८॥ इन्द्रियोंके विषयादि वस्तु-समुदायमें लोलुपता रूप लोभ-शत्रुको नाश कर निर्लोभरूप धर्मका अंग शौचधर्म धारण करना चाहिए। जलकी शुद्धि शौचधर्म नहीं है ॥९॥ छह कायके जीवोंकी दया करके और इन्द्रिय-मनका निग्रह करके धर्मकी सिद्धिके लिए संयम धारण करना चाहिए और असंयमसे बचना चाहिए ॥१०॥ ज्ञानीजनों को धमकी सिद्धि करनेवाले बारह भेदरूप तप अपनी शक्तिके अनुसार धर्म-सिद्धिके लिए करना चाहिए ॥११॥ परिग्रहका परित्याग कर ज्ञान और संयमको उत्पन्न करनेवाला धर्मप्रद और गुणोंका भण्डार ऐसा पवित्र दान धर्मके For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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