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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 1 श्री-वीरवर्धमानचरित ___ इसका निर्देश अन्य चरितोंमें नहीं है । यह महावीरके विवाहके प्रसंगमें एक उल्लेखनीय यथाथ प्रतीत होता है। श्वे. परम्परामें महावीरकी पत्नीका नाम यशोदा ही मिलता है। हरिवंशके कथनका दूसरा उल्लेखनीय प्रसंग है कि भगवान् महावीरके निर्वाणके उपलक्ष्यमें भारतमें प्रतिवर्ष लोगोंके द्वारा दीपमालिका पर्वका मनाया जाना ततस्तु लोकः प्रतिवर्षमादरात् प्रसिद्धदीपालिकयात्र भारते । समुद्यतः पूजयितुं जिनेश्वरं जिनेन्द्रनिर्वाणविभूतिभक्तिभाक् ॥ -६६।२१ इसका भी निर्देश किसी चरितकारने नहीं किया है। प्राचीन और अर्वाचीन जनमानसमें बहुत अन्तर आ गया है । प्राचीन युगमें किसी व्यक्तिको उसके मात्र वर्तमान जीवनसे ही नहीं आंका जाता था किन्तु उसके अतीत जीवन सम्बन्धी जन्मपरम्परासे भी आंका जाता था। उससे उस व्यक्तिके विगत जीवनोंके उत्थानपतनकी श्रृंखलासे बद्ध पाठकका मानस अपने जीवनके प्रति सुशिक्षित होता था । वह एक जन्मकी ही मृगमरीचिकामें न फंसकर जीवनके यथार्थरूपको देखता था। इससे उसे प्रबोध मिलता था, और मिलता था पतनसे उत्थान की ओर जानेका दिग्दर्शन । यही वजह है कि उपलब्ध महावीर चरितोंमें महावीरके पूर्व • जन्मोंकी घटनाओंको विशेष प्राधान्य दिया गया। जैन परम्परामें संसारका सर्वोच्च पद है तीर्थकरत्व-धर्मतीर्थका प्रवर्तक होकर मोक्ष प्राप्त करना । मुक्ति तो अनेक प्राप्त करते हैं किन्तु वे सब धर्मतीर्थके प्रवर्तक नहीं होते। इसीसे तीर्थकरके गर्भमें आने और जन्म लेने का महत्त्व है । और उन्हे गर्भकल्याणक, जन्मकल्याणक कहा जाता है। जो भी व्यक्ति मोक्ष जाता है वह पहले अपनी माताके गर्भ में आता है, फिर जन्म लेता है, फिर प्रबुद्ध हो तप धारण करता है, फिर केवलज्ञान प्राप्त करता है, तब मोक्ष जाता है। इस तरह उसके भी गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण होते हैं किन्तु न उन्हें कल्याणक कहा जाता है और न उनका उतना सार्वजनिक महत्त्व ही होता है क्योंकि वह एक व्यक्तिगत जैसी बात है। किन्तु तीर्थंकरका जीवन केवल व्यक्तिगत नहीं होता। उसका जन्म तो धर्ममार्ग प्रवर्तनके लिए होता है जो उसके मोक्ष चले जानेपर भी चलता रहता है। जैसे भगवान महावीरके निर्वाणको अढ़ाई हजार वर्ष बीतनेपर भी उनका धर्ममार्ग चल रहा है और जनता उससे लाभान्वित हो रही है। इसी 'से वस्तुतः तीर्थंकर पद केवलज्ञान प्राप्त होने पर ही प्राप्त होता है इससे पहले तो वह वास्तव में तीर्थंकर नहीं होते । तीर्थका प्रवर्तन करने पर ही होते हैं और तीर्थका प्रवर्तन पूर्ण ज्ञान प्राप्त होनेपर ही होता है । जबतक राग-द्वेष, मोहका अस्तित्व है तबतक उपदेश की पात्रता नहीं मानी गयी। क्योंकि मनुष्य रागादिके वश होकर झूठ भी बोलता है। जब वह इस त्रिवेणीको पार करके पूर्ण ज्ञानी होता है तब बह धर्मोपदेशका पात्र होता है। तब उसकी उपदेशसभा लगती है जिसका नाम समवसरण है। उसमें सब ओरसे प्राणी आकर सम्मिलित होते हैं। किसीके आनेपर प्रतिबन्ध नहीं है। पशु-पक्षी तक पहुँचते हैं । किन्तु वहाँ वही पहुँचते हैं जिनका भविष्य उज्ज्वल होता है। 'जैसे-इन्द्रभूति गौतम आदि भगवान् महावीरके समवसरणमें पहुँचे और उन्होंने भगवान्का शिष्यत्व स्वीकार कर प्रधान गणधरका पद पाया। भगवान के पश्चात दूसरा स्थान उनके गणधरोंका हो होता है। वे ही भगवानकी वाणीका अवधारण करके उसे द्वादशांगके रूपमें निबद्ध करते हैं और फिर शिष्य प्रशिष्य परम्पराके क्रमसे अवतरित होती हुई द्वादशांगवाणी प्रवाहित होती है। इसीसे गणधरका बड़ा महत्त्व है। गणधरके अभावमें भगवान महावीरकी वाणी ६५ दिन तक नहीं खिर सकी थी। गौतमके गणधर बनने पर ही उसका खिरना प्रारम्भ हुआ। इस देशमें ज्ञान-विज्ञानके प्रसारमें ब्राह्मण वर्ण की महती देन है। भगवान् महावीरके प्रायः सब गणधर ब्राह्मण थे। ब्राह्मण परम्परा वेद और जगत्कर्ता ईश्वरकी अनुगामिनी है और भगवान् महावीरके धर्ममें दोनोंको हो स्वीकार नहीं किया। ब्राह्मण परम्परा और श्रमण परम्पराके पारस्परिक विरोधका मूल For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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