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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३२ श्री-वीरवर्धमानचरिते [४.३१वियोगैरिष्टवस्तूनां संयोगैश्च खलात्मनाम् । स्वानिष्टकारिणां रोगल्लेशायैः प्रचुरैः परैः ॥३॥ अपरं च महद्दुःखं बृहत्पापोदयार्पितम् । भ्रमता सुचिरं कालं त्रसस्थावरयोनिषु ॥३२॥ सकलासातपूर्णासु पराधीनतया त्वया । लब्धं घोरतरं निन्द्रमसंख्यातसमावधि ॥३३॥ केनापि हेतुनावाप्य विश्वनन्दित्वमाप्तवान् । संयमं तन्निदानेन त्रिपृष्ठोऽभूनवान्नृपः ॥३४॥ इतोऽस्मिन् भारते क्षेत्रे दशमे भाविजन्मनि । तीर्थकृदन्तिमो नूनं भविष्यसि जगद्धितः ॥३५॥ जम्बूद्वीपस्थपूख्यिविदेहे श्रीधराह्वयः। तीर्थकतॆति संपृष्टः केनचित्सदसि स्थितः ॥३६॥ भगवन्नादिमे द्वीपे भरते यो भविष्यति । चरमस्तीर्थकृत्तस्य जीवः काध प्रवर्तते ॥३७॥ इति तत्प्रश्नतोऽवादीजिनेन्द्रः स्वगणान् प्रति । त्रिकालगोचरा सर्वा त्वदीयां सुकथामिमाम् ॥३८॥ जिनेशश्रीमुखादेतच्छ्रुत्वा दिव्यं कथानकम् । भूतं मावि मया कृत्स्नं ते हिताय निरूपितम् ॥३९॥ इदानीं त्वं चिरायातं मिथ्यात्वं मवकारणम् । हालाहलमिवोज्झिस्वा सम्यक्त्वं शुद्धिकारणम् ॥१०॥ धर्मकल्पतरोमलं शङ्कादिदोषवर्जितम् । सोपानं प्रथमं मुक्तिसौधस्य स्वीकुरु द्रुतम् ॥४१॥ तेन ते जायते नूनं विश्वाभ्युदयमासा । जगत्त्रयमवं सौख्यं चाहदत्यादिसत्पदम् ॥४२॥ यतो न दर्शनेनैव समो धर्मों जगत्त्रये । न भूतो न भविता नास्ति सर्वाभ्युदयसाधकः ॥४३॥ मिथ्यात्वेन समं पापं न भूतं न भविष्यति । न विद्यते त्रिलोकेऽपि विश्वानर्थनिबन्धनम् ॥४४॥ श्रद्धानं सप्त तत्वानां चाहदागमयोगिनाम् । निःसंदेहं जिनः प्राहुर्दशनं ज्ञानवृत्तदम् ॥४५॥ AMAHARMA पाखण्डियोंका वेष ग्रहण कर, सन्मागमें दूषण लगाकर और कुमार्गको बढ़ाते हुए अपने पितामह ऋषभदेवके उत्तम वचनोंका अनादर करके अत्यन्त दुष्टबुद्धि होकर मिथ्यात्वका उपार्जन किया । पुनः उस मिथ्यात्व कर्मसे उत्पन्न हुए पापसे जन्म-मरणादि से पीड़ित होते हुए तुम इस संसार-काननमें परिभ्रमण करते हुए दुष्कर्मसे उत्पन्न महादुःखोंको प्राप्त हुए हो ॥२८-३०॥ इष्ट-वस्तुओंके वियोगसे, दुर्जन मनुष्योंके और अपने अनिष्टकारी वस्तुओंके संयोग से और भारी रोग-क्लेशादिके दुःखोंसे तुम पीडित रहे हो। इसके पश्चात् भारी पापके उदयसे अति दीर्घकालतक तुमने सर्वप्रकारकी असाताओंसे परिपूर्ण अस-स्थावर योनियोंमें पराधीन होकर घूमते हुए महानिन्द्य, अतिघोर दुःखोंको असंख्यात कालतक भोगा ॥३१-३३।। पुनः किसी पुण्यके निमित्तसे तुम विश्वनन्दीके भवको प्राप्त हुए और वहाँपर संयमका पालन कर तथा निदानका बन्ध कर उसके फलसे तुम त्रिपृष्ठ राजा हुए ॥३४॥ अब इससे आगे दसवें भवमें तुम इसी भारतवर्ष में जगत्का हित करनेवाले अन्तिम तीर्थकर नियमसे होओगे ॥३४-३५।। जम्बूद्वीपस्थ पूर्व विदेह नामके क्षेत्रमें श्रीधर नामक तीर्थकर समवशरणमें विराजमान हैं। उनसे किसीने पूछा-हे भगवन् , इस जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें जो अन्तिम तीर्थकर होगा, वह आज कहाँपर है । इस प्रकारके प्रश्न करनेपर जिनेन्द्रदेवने अपने गणोंके प्रति तुम्हारी यह त्रिकाल विषयक शुभ कथा कही ॥३६-३८|| जिनेन्द्रदेवके श्रीमुखसे सुनकर मैंने तेरे हितके लिए यह भूत और भावी सर्व दिव्य कथानक तुझे कहा है ॥३९॥ अब तू चिरकालसे आये हुए, संसारके कारणभूत इस मिथ्यात्वको हालाहल विषके समान समझके छोड़ और पवित्रताका कारणभूत, धर्मरूप कल्पवृक्षका मूल, मुक्तिरूप प्रासादका प्रथम सोपान यह सम्यक्त्व शंकादि दोषोंसे रहित होकर के शीघ्र स्वीकार कर ।।४०-४१।। इस सम्यक्त्वके प्रभावसे तेरे निश्चयसे शीघ्र विश्वके समस्त अभ्युदय, तीन जगत्के सुख और तीर्थकरादिके उत्तम पद प्राप्त होंगे। क्योंकि तीन जगत्में सम्यग्दर्शनके समान सर्वअभ्युदयोंका साधक धर्म न हुआ न है और न होगा ॥४२-४३॥ तथा समस्त अनर्थोका कारण मिथ्यात्व-जैसा पाप तीन लोकमें न हुआ, न है और न होगा ॥४४॥ जिनेन्द्रदेवने सात तत्त्वोंके, और सत्यार्थ देवशास्त्र-गुरुओंके सन्देह-रहित श्रद्धानको ज्ञान-चारित्रका देनेवाला सम्यग्दर्शन कहा है ॥४५।। For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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