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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १९.२६५ ] www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एकोनविंशोऽधिकारः अर्थाढ्यं धर्मबीजं ख-विरतिजनकं वीरनाथस्य दिव्यैः साथैस्तथ्यैर्गुणौघैर्निचितमपमलं रागनिर्णाशहेतुम् । कर्मनं ज्ञानमूलं विशदमुनिगणैः पावनं तच्चरित्रं यावत्कालान्तमन्त्रासमगुणगह नैर्नन्दतादार्यखण्डे || २६२।। येनोक्तो धर्मसारः सुरशिवगतिस्त्यक्तदोषो गुणाधिः द्वेधा हिंसादिवूरो गृहिजन मुनिभिर्वर्ततेऽद्यापि नित्यम् । स्थास्यत्यप्रेन नूनं परमसुखकरो यावदस्यावधिः स्यात् कालस्यासौ जिनेशो मम हरतु भवं वन्दितः संस्तुतश्च ॥ २६३ ॥ जल्पितेन बहुना किमाश्रयेद्वीरनाथ इह यो मया स्तुतः । मे ददातु कृपया सोऽद्भुतान् मुक्तये निजगुणान् स्वशर्मणे ॥ २६४ ॥ त्रिसहस्राधिकाः पञ्चत्रिंशच्छ्लोकाः भवन्ति वै । ret गुणिताः सर्वे चारित्रस्यास्य सन्मतेः || २६५॥ इति भट्टारकी र्तिविरचिते श्रीवीरवर्धमानचरिते श्रेणिकाभयं कुमारभवावलीभगवन्निर्वाणगमन वर्णनो नामैकोनविंशोऽधिकारः ॥ १९ ॥ शरण देनेवाला है, इन्द्रादिकोंके द्वारा पूज्य है, स्वर्ग और मोक्षका मूल कारण है, एवं परम पवित्र है, वह कालके अन्त - पर्यन्त इस आर्यखण्ड में सर्वत्र प्रसिद्धिको प्राप्त हो || २६१ || यह चरित्र सुन्दर अर्थ से संयुक्त है, धर्मका बीज है, इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्तिका उत्पादक है, सत्यार्थ गुणों से युक्त है, निर्मल है, रागके नाशका कारण है, कर्मोंका विनाशक है, ज्ञानका मूल है, निर्मल मुनिजनों के गुणोंसे पवित्र है, और अतुल गुणोंसे गहन है || २६२ || जिस वीर प्रभुने स्वर्ग और शिवगतिका देनेवाला, दोषोंसे रहित, गुणोंका समुद्र, हिंसादिसे दूरवर्ती परम अहिंसामयी धर्मके सारवाला यह धर्म गृहस्थ और मुनिके रूपसे दो प्रकारका कहा है, जो आज भी गृहस्थ और मुनिजनोंके द्वारा नित्य प्रवर्तमान है और आगे भी नियम से प्रवर्तमान रहेगा, वह परम सुखका करनेवाला जैनधर्म जब तक इस कालकी अवधि हो, तब तक सदा प्रवर्तमान रहे । इस धर्म के उपदेष्टा एवं मेरे द्वारा वन्दित और संस्तुत वे जिनेन्द्र देव मेरे संसारको हरें || २६३ || इस विषय में अधिक कहनेसे क्या, जिन वीरनाथका मैंने आश्रय लिया है, और इस ग्रन्थमें मैंने जिनकी स्तुति की है, वे कृपाकर शीघ्र ही अपने अद्भुत मुक्ति और आत्मीय सुखकी प्राप्तिके लिए मुझे देवें ॥ २६४ || श्री सन्मतिके इस चरित्रके यत्नसे गणना किये गये सर्वश्लोक तीन हजार पैंतीस हैं । अर्थात् मूल संस्कृतचरित्र तीन हजार पैंतीस (३०३५ ) श्लोक प्रमाण है । इस प्रकार भट्टारक श्री सकलकीर्ति-विरचित इस श्रीवीरवर्धमानचरितमें श्रेणिक राजा, और अभयकुमारकी भवावली तथा भगवान् के निर्वाण-गमनका वर्णन करनेवाला यह उन्नीसवाँ अधिकार समाप्त हुआ ||१९|| For Private And Personal Use Only २२१
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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